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संयम, तप, अपरिग्रह का मनोविज्ञान
• प्रो. रतनचन्द्र जैन
कर्मों का उदय और
के निषेक उदययोग्य होते उदीरणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, मन्दकषाय-परिणाम को विशुद्धता कहते हैं। इससे अशुभकर्मों
हैं। किन्तु इनमें से जिसके भव और भाव के निमित्त से का संवर और निर्जरा तथा शुभकर्मों का आस्रव-बन्ध होता है।
उदय के अनुकूल अन्य होती है। जैसे स्वर्णादि द्रव्य या विशुद्धता के विकास में संयम, तप, अपरिग्रह, भक्ति, स्वाध्याय निमित्त होंगे उसी का स्वमुख सांसारिक सुख की वस्तुएँ | और सत्संग मनोवैज्ञानिक भूमिका निभाते हैं। प्रस्तुत आलेख में | से उदय होगा, दूसरी का दिखने पर मोही जीव के लोभ | प्रथम तीन साधनों की मनोवैज्ञानिक भूमिका का उद्घाटन किया |
स्तिबुक-संक्रमण के द्वारा का उदय हो जाता है। स्त्री के गया है।
परमुख से उदय होगा। (पं. सान्निध्य से पुरुष के मन में,
रतनचन्द्र जैन मुख्तार : पुरुष के सम्पर्क से स्त्री के मन में कामवासना (वेदकषाय) की उत्पत्ति | व्यक्तित्व और कृतित्व, भाग 1, पृ. 446) होती है। शत्रु का सामना होने पर क्रोध उदित हो जाता है। सुन्दर दृश्य, जिस समय क्रोध का उदय है उस समय उदय में आने वाले मधुर संगीत या मादक सुगन्ध की अनुभूति सातावेदनीय के उदय मान, माया, लोभ (उस समय से) एक समय पूर्व ही स्तिबुकसंक्रमण का कारण बन जाती है। ये द्रव्य के निमित्त से क्रोधादि कर्मों के उदय | द्वारा क्रोधरूप परिणत हो जाते हैं। अतः क्रोधोदय के समय उदय के उदाहरण हैं।
को प्राप्त मान, माया, लोभरूप कर्म स्वमुख से उदित न होकर कुछ कर्मप्रकृतियों का उदय नरक-स्वर्ग आदि विशिष्ट क्षेत्रों में | क्रोधरूप में परमुख से उदित होते हैं। (पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार : ही होता है। हिमालय आदि अत्यंत शीतल क्षेत्र में या किसी अत्यंत | व्यक्तित्व और कृतित्व, भाग-1,पृष्ठ 455) उष्ण प्रदेश में जाने से शीत और उष्णता की पीड़ा अनुभव कराने पंडित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री लिखते हैं - 'अध्रुवोदयरूप वाले असातावेदनीय का उदय होता है। कभी-कभी निर्जन वन में भय | कर्मप्रकृतियों में हास्य और रति का उत्कृष्ट उदय-उदीरणा काल की उत्पत्ति होती है। यह क्षेत्रनिमित्तक कर्मोदय है।
सामान्यतः छह माह है। इसके बाद इनकी उदय-उदीरणा न होकर उदयकाल आने पर जो कर्मोदय होता है वह कालनिमित्तक है। | अरति और शोक की उदय-उदीरणा होने लगती है। किन्तु छह माह शीत, ग्रीष्म आदि देहप्रतिकूल ऋतुओं (काल) के निमित्त से भी | के भीतर यदि हास्य और रति के विरुद्ध निमित्त मिलता है तो बीच असातावेदनीय का उदय होता है। वृद्धावस्था भी असातावेदनीय के | में ही इनकी उदय-उदीरणा बदल जाती है। (सर्वार्थसिद्धि 9/36/ उदय का निमित्त बन जाती है। यह कालनिमित्तक कर्मोदय है। विशेषार्थ)
मनुष्यादि भवों (पर्यायों) के निमित्त से मनुष्यगति, मनुष्यायु स्वर्ग में प्रायः साता की ही सामग्री उपस्थित रहती है और आदि का उदय होता है। देव और नारक भव के निमित्त से वैक्रियिक नरक में असाता की ही। अतः स्वर्ग में सातावेदनीय का ही उदय शरीर का उदय होता है।
बना रहता है, असाता का उदयकाल आने पर साता के रूप में जीव के अपने भावों के निमित्त से भी कर्मों का उदय होता | परिणमित होकर उदित होता है। इसी प्रकार नरक में असाता का ही है। जैसे किसी वस्तु के प्रति लोभ का उदय हो और उसकी प्राप्ति उदय रहता है और सातावेदनीय असाता के रूप में परिवर्तित होकर सरल मार्ग से होती हुई दिखाई न दे, तो माया (छलकपट-भाव) का फल देता है। (जैनदर्शन/महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य/पृ. 102) उदय हो जाता है। माया सफल न होने पर हिंसाभाव (क्रोध) जन्म इससे स्पष्ट होता है कि उदयकाल रूप निमित्त की अपेक्षा द्रव्य, लेता है। मिथ्यात्व के निमित्त से संसार के पदार्थों में रागद्वेष की उत्पत्ति | क्षेत्र, भव, भाव तथा शिशिर-वसन्त, रात्रि, वार्धक्य आदि कालहोती है। मानकषाय के निमित्त से अपना सम्मान करनेवालों के प्रति रूप निमित्त अधिक बलवान् होते हैं। प्रीति (रति) एवं उपेक्षा करने वालों के प्रति द्वेष (अरति) का उदय
निमित्त-परिवर्तन से कर्मोदय में परिवर्तन होता है। इस प्रकार कर्मों का विपाक (फल देने की अवस्था को प्राप्त
चूँकि कर्मों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के होना), द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव का निमित्त होने पर ही होता
निमित्त से होता है, अतः निमित्तों में परिवर्तन कर कर्मोदय में परिवर्तन है, उसके बिना नहीं। किन्तु काल की अपेक्षा अन्य निमित्त प्रायः
किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, लोभ उत्पन्न करने वाली सामग्री बलवान होते हैं, क्योंकि भले ही किसी कर्म का उदयकाल हो, यदि
का सान्निध्य टालकर और निर्लोभ की प्रेरणा देने वाले निमित्तों का किसी अन्य कर्म के उदययोग्य अन्य निमित्त उपस्थिति हो गया है,
आश्रय लेकर लोभ के उदय को रोका जा सकता है। कोई हमारा अपमान तो उसका उदय हो जायेगा और जिसका उदयकाल है वह स्वमुख
करता है और उसके निमित्त से क्रोध उत्पन्न हो सकता है तो हम से उदित न होकर उसी अन्य कर्म के मुख से (उसी के रूप में परिणत
क्षमाभाव द्वारा अपमानबोध को निष्प्रभावी कर क्रोध के उदय को रोक होकर) उदित होगा। (सर्वार्थसिद्धि 8/21) जैसे साता और असाता
सकते हैं। इस प्रकार क्षमादिभाव, संयम-तप-अपरिग्रह, भक्ति, दोनों का अबाधाकाल समाप्त हो जाने पर एक साथ दोनों ही प्रकृतियों
स्वाध्याय आदि वे निमित्त हैं जो क्रोधादि के उदय के निमित्तों को अशक्त कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप क्रोधादि का उदय नहीं
-जून 2001 जिनभाषित 17
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