Book Title: Jinabhashita 2001 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ पाठ्य पुस्तक से आपत्तिजनक पद्य निष्कासित है। हमें विश्वास है कि त्याग, बलिदान व अपने नैसर्गिक सुख का परित्याग कर समाज को अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर ले जाने का आदर्श स्थापित करेगी, नारी ही। इन सब गुणों के बावजूद आज पाश्चात्य सभ्यता और पारम्परिक मूल्यों का टकराव भी हो रहा है। जिसमें भारत में हर साल 20 लाख मादा भ्रूणों की हत्या हो रही है। लिंगभेद पर आधारित हमारे समाज में पुरुषों का वर्चस्व है, इसलिये महिलाओं के खिलाफ किया गया कोई काम उसके पैदा होने के बाद से नहीं, बल्कि उसके पैदा होने के अंदेशे से ही शुरू हो जाता है। बीमार मानसिकता के लोगों को यह समझना होगा कि सृष्टि स्त्री व पुरुष दोनों के सहयोग से चलती है। अगर हम एक का अस्तित्व ही खत्म कर देंगे तो इस सृष्टि को आगे कैसे बढ़ाएँगे, इस तरह तो अनजाने में ही हम सृष्टि के विकास को रोक रहे हैं। वक्त रहते ही स्वयं को सुधारना होगा वरना दूसरों (औरत) को मिटाने के चक्कर में हम स्वयं ही मिट जाएँगे। यदि समाज इस समस्या पर यूँ ही आँखे मँदे रहा तो आने वाले समय में समाज का अस्तित्व या तो रहेगा ही नहीं, या गंभीर चिंतनीय विषय होगा। मादा भ्रूण हत्या द्वारा समाज न सिर्फ स्त्रीत्व का अपमान कर रहा है, बल्कि एक निर्दोष को अपने अधिकार से वंचित कर रहा है। भगवान महावीर ने घोषणा की थी कि विश्व के समस्त प्राणियों में एक सशक्त स्वभाव है - जीवन की आकांक्षा। इसलिये किसी को कष्ट न पहुँचाओ। जियो और जीने दो का नारा भी उन्हीं ने दिया था। आज जब देश-विदेश में महावीर स्वामी का 2600 वाँ जन्मोत्सव मनाया जा रहा है, तब यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि महावीर स्वामी के उन प्रवचनों का विशेष रूप से स्मरण हो जो पच्चीस सदियों पहले नारी जाति को पुरुष के समकक्ष खड़ा करने के प्रयास में उनके मुख से उच्चरित हुए थे। द्वारा- सन्दीप पटोरिया एसोसिएट्स, सिविल लाइन्स, कटनी-483501 (म.प्र.) 26 जून 2001 जिनभाषित श्री महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, अजमेर द्वारा बी.ए. भाग एक में हिन्दी साहित्य के अध्यापन के लिय स्वीकृत पाठ्य पुस्तक राजस्थान प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित एवं डॉ. श्याम सुंदर दीक्षित द्वारा संपादित पुस्तक प्राचीन काव्य माधुरी के अध्याय 6 पृष्ठ सं. 50 पर छंद सं. || कविसुंदरदास का निम्न छंद है : 'तो अरहंत धर्मों भारी मर्मो, केश उपरर्मी बेशर्मी। जो भोजन नर्मी पावै सुरभी, मन मधुकरिणी अति डर्मी। अरु दृष्टि सुचर्मी अंतरि गरमी, नाहीं भामी गह ठेला। दादू का चेला मर्म पछेला, सुंदर न्यारा हवै खेला।' उक्त पद्य में साम्प्रदायिक विद्वेष से प्रेरित जैन साधुओं की चर्या के बारे में सर्वथा निराधार असत्य किंतु अत्यंत निन्दात्मक टिप्पणी की गई है। उक्त विषय की जानकारी प्राप्त होते ही अजमेर जिले के दि. जैन समाज में तीव्र रोष व्याप्त हुआ और श्री माणकचंद जैन एडवोकेट, अजमेर, श्री मूलचंद लुहाड़िया एवं श्री अशोक कुमार पाटनी, किशनगढ़ की ओर से विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय को विरोध पत्र भेजे गए। अजमेर जिले की भगवान महावीर 2600वाँ जन्म जयती महोत्सव समिति की अजमेर में बैठक आयोजित हुई जिसमें उक्त पद्य को पाठ्य पुस्तक में से निष्कासित कराने के लिए वृहत् स्तर पर आदोलन प्रारंभ करने का निर्णय लिया गया। यह भी निर्णय लिया गया कि इससे पूर्व एक बार दि. जैन समाज का प्रतिनिधि मंडल वि.वि. के उपकुलपति जी से इस आपत्तिजनक पद्य को पाठ्यपुस्तक से निकाल देने के लिये निवेदन करे एवं ऐसा नहीं किए जाने पर तीव्र आन्दोलन प्रारंभ करने की चेतावनी दे दी जाए। महोत्सव समिति के मंत्री श्री कपूरचंद सेठी ने उपकुलपति जी को उक्त आशय का पत्र लिखा। प्रसन्नता का विषय है कि विश्वविद्यालय के उपकुलपति महोदय ने दि. जैन समाज के विरोध के औचित्य को समझकर तुरंत प्रभाव से यह आपत्तिजनक पद्य पाठ्यपुस्तक से निष्कासित किए जाने के निर्देश प्रदान कर दिए। उपकुलपति महोदय के इस उचित एवं प्रशंसनीय निर्णय के लिये दि.जैन समाज अपना आभार व्यक्त करता है। . मूलचंद लुहाड़िया आध्यात्मिक परितृप्ति खड़-खड़ काया ऐसी जैसे आग में विदग्ध स्वर्णलता। अभय की जीवंत प्रतिमूर्ति। रोम-रोम में आज भी जहाँ तहाँ बालक विद्याधर सा ही भोलापन, वैसी ही निरीह निष्काम मुद्रा। सात सुरों के लयपुरुष, संगीत में गहरी रुचि, कवि भाषाविद्, दुर्धर्ष साधक, तेजोमय तपस्वी। बोलने में मंत्र-मुग्धता, आचरण में स्पष्टता, कहीं कोई प्रचार-प्रसार की कामना नहीं। सर्वत्र सुख, शांति, महान मनीषी और तेजस्वी, तपोधन, जीवंत तीर्थ निर्ग्रन्थ दिगम्बर आचार्य। • डॉ. नेमीचंद्र जैन, इंदौर (म.प्र.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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