Book Title: Jinabhashita 2001 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 23
________________ जाता है, इसका कोई आगम प्रमाण नहीं है। प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् डॉ. | गोदावरी के उस पार तक ले गये थे। पीछे से गोदावरी में भयंकर मारुतिनंदन तिवारी ने कहा है कि ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान | बाढ़ आ गयी। डर यह था कि शत्रु को यदि बाढ़ का पता लग गया पार्श्वनाथ एवं सुपार्श्वनाथ का नाम लगभग एक सा होने से ऐसी मूर्ति | तो वह नागदेव को पीछे खदेड़ देगा और सब नदी में डूबकर मरण बनना प्रारंभ हुआ। को प्राप्त हो जायेंगे। यह भी समाचार आया कि नागदेव जीत तो शंका- क्रोधादि कषाय और हास्यादि नौ नोकषायों में क्या अंतर | गये हैं पर अर्द्धमृत से हो गये हैं। सती अत्तीमव्वे उनको अपने खेमे में लाना चाहती थी। नदी के उफान के कारण मजबूर थी। वह अचानक समाधान- नोकषाय का अर्थ किंचित कषाय है। अर्थात ये | तेजी से निकली और नदी के किनारे खड़े होकर कहने लगी कि यदि कषाय तो हैं पर क्रोध, मान आदि कषायों की तरह नहीं। जिस प्रकार मैं पक्की जिनभक्त और अखण्ड पतिव्रता होऊँ तो हे गोदावरी नदी, स्थिति और अनुभाग डालने में चार कषायें समर्थ होती हैं उस तरह | मैं तुझे आज्ञा देती हूँ कि तेरा प्रवाह उतने समय के लिए रुक जाए ये नोकषायें स्थिति और अनुभाग डालने में समर्थ नहीं हैं। ये भी जब जब तक हमारे परिवारी जन इस पार नहीं आ जाते। तुरंत ही नदी तक चार कषायें हैं तभी तक पायी जाती हैं। कषायों के पूर्णतः नष्ट | का प्रवाह घट गया और स्थिर हो गया। वह गई और अपने पति को होने के पहले ही नष्ट हो जाती हैं तथा कषायों के साथ ही उदय में | ले तो आई पर बचा न सकी। शेष जीवन उसने उदासीन धर्मात्मा आतीं हैं अलग से उदय में नहीं आती। इसलिए कषाय होते हुए भी | श्राविका के रूप में घर में बिताया। उसने स्वर्ण एवं रत्नों की 1500 किचित् कषाय हैं। जैसे कोई छोटा बच्चा पिताजी के साथ उनकी जिन प्रतिमाएँ बनवाकर विभिन्न मंदिरों में विराजमान की। महाकवि ऊँगली पकड़कर मेला देखने जाता है उसी तरह ये नोकषाय भी कषायों | पोन्न के शांतिपुराण की कन्नड़ भाषा में 1000 प्रतियाँ लिखाकर के सान्निध्य में कार्य करती हैं। शास्त्र भण्डारों में वितरित की। निरंतर दान देने के कारण उसे 'दान शंका- तीर्थकरों के एक से अधिक गणधरों का होना शास्त्रों । | चिंतामणि' कहा जाता था। उपर्युक्त कथा शिलालेख से प्रमाणित है। में लिखा है। परन्तु भगवान महावीर के काल में केवल श्री गौतम गणधर ही सभी प्रश्नों का उत्तर देते थे। तो क्या अन्य गणधर कुछ नहीं करते? सत्कारज और दान ही, कीर्ति के संजोग समाधान- श्री उत्तरपुराण पृष्ठ 123 पर श्लोक नं. 37 में इस प्रकार कथन है .डॉ. विमला जैन 'विमल' जयाख्यमुख्यपञ्चाशद्गणभृवृंहितात्मवाक्। दान की महिमा अगम है, शारद सकहि न गाय, अर्थ - जय आदि पचास गणधरों के द्वारा उनकी दिव्य ध्वनि मेघ न देता दान जो, पृथ्वी बाँझ रहाय। का विस्तार होता था। सागर लेता जल रहे, सब नदियन से माँगे, श्री उत्तरपुराण पृ. 494 में इस प्रकार लिखा है मीठा जल खारी बने, प्राणी करहि न राग। सकौतुकः समभ्येत्य सुधर्मगणनायकम्। जलनिधि नीचा ही रहे, लेता रहता दान, भक्तिकोऽभ्यर्च्य वन्दित्वा यथास्थानं निविश्य तम्।। जलद सदा उत्कृष्ट बन, जीवन देता दान। प्राञ्जलिर्भगवन्नेष यतीन्द्रः सर्वकर्मणा। मेघ समान है सम्पदा, कबहूँ थिर न रहाय, मुक्तो वाद्यैव को वेति पप्रच्छ प्रश्रयाश्रयः।। __ना बरसहिं यदि पयद तो, मारुति देत उड़ाय। अर्थ- कोतुक के साथ भीतर जाकर श्रेणिक राजा ने सुधर्म गणधर दान भोगकर सम्पदा, नतरु धरी रह जाय, देव की बड़ी भक्ति से पूजा-वंदना की तथा यथायोग्य स्थान पर बैठ जैसे काया मनुज की, मिट्टी में मिल जाय। हाथ जोड़कर बड़ी विनय से उनसे पूछा कि हे भगवन्, जो मानो आज लक्ष्मी चपला चंचला, पकड़ सके ना हाथ, ही समस्त कर्मों से मुक्त हो जायेंगे ऐसे ये मुनिराज कौन हैं? दान दिये चेरी भयी, भव-भव देगी साथ। इससे स्पष्ट होता है कि मुख्य गणधर के अलावा अन्य गणधर अवसर पाये दान कर, अवसर चूको नाय, भी प्रश्नों का उत्तर देते हैं। समय चूक पछताय मत, गयी घड़ी ना आय। शंका- आयुकर्म के अनुभाग में क्या अंतर होता है समझाइये? दान से बढ़कर नाहि है, कोई उत्तम कर्म, समाधान- इन्द्र और सामानिक, दोनों जाति के देवों की आयु, पर देता सत्पात्र को, देखि समय का मर्म। भोग सामग्री, परिवार, शक्ति, स्थान आदि समान होते हैं। परन्तु लेना दान बुरा नहीं, बढ़कर दे लौटाय, इन्द्र की आज्ञा और ऐश्वर्य में विशेषता होती है। इन्द्र की आज्ञा चलती भूमि बीज ले अङ्क में, अनगिन बीज उगाय। है सामानिक की नहीं। इन्द्र बंधन रहित होते हैं जबकि सामानिक देवों ___ दान दिये यश पाओगे, लाभ मिले तत्काल, के ऊपर, इन्द्र होने से, वे बंधनसहित होते हैं। यहाँ आयु की स्थिति कीर्ति अमर संसार में, मिटा सकहि ना काल। तो समान है पर अनुभाग भिन्न। जैसे कोई दो व्यक्ति जेल में हैं परन्तु कीर्ति रहित जीवन सदा, व्यर्थ मानते लोग, कोई ए श्रेणी में है और कोई बी श्रेणी में। इसी प्रकार आयुकर्म के विपाक सत्कारज और दान ही कीर्ति के संजोग। में अंतर समझना चाहिए। आयु वायु सम अथिर है, चंचल तड़ित समान, शंका- महासती अत्तीमव्वे कौन थी? 'विमल' शान्ति-सुख चाहना, दे निज कर से दान। समाधान- चालुक्य वंश के महादण्डनायक वीर नागदेव की 1/344 सुहाग नगर, पत्नी थी। एक बार नागदेव युद्ध करते हुए शत्रु को खदेड़ते हुए उसे फिरोजाबाद-283203 -जून 2001 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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