Book Title: Jinabhashita 2001 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ हृदय में वैराग्य, छूटने लगा संसार का राग और चिन्तन चलने लगा | ही ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जी ने वस्त्रों का त्याग कर निर्ग्रन्थ स्वरूप जिन्दगी का सही राज पाने के लिये। जीवन का रहस्य कैसे पाया जाता धारण किया, देवों ने भी इस महोत्सव को मनाया और भीषण गरमी है? किसी ने कहा है के समय वर्षा होने लगी। श्री ज्ञानसागर जी ने ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जिन्दगी का राज वह इंसान पा सकता है। जी को मुनि विद्यासागर नामकरण करके सुशोभित किया। उनके द्वारा जो रंज में भी खुशियों के गीत गाता है। प्रथम दीक्षित मुनि श्री विद्यासागर जी संयम साधना के साथ स्वाध्याय जीवन के रहस्य की खोज के लिए 20 वर्ष की अल्प आयु ध्यान करने लगे। इसके बाद आचार्य श्री ज्ञानसागर जी अपने प्रथम में बढ़ चले कदम संयम पक्ष की ओर। आचार्य श्री देशभूषण जी से योग्य शिष्य को अपना आचार्य पद भी मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया वि.सं. आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर कछ समय उनके पास रहे बाद में 2029 दिनांक 22 नवम्बर 1972 को नसीराबाद जिला- अजमेर राजस्थान की ओर आ गये। वयोवृद्ध तपोनिधि श्री ज्ञानसागर जी (राज.) में देकर आचार्य विद्यासागर बना दिया। अपने ही शिष्य को महाराज जी के पास रहकर जैनदर्शन, न्याय, अध्यात्म, ग्रन्थों का निर्यापकाचार्य बनाकर समाधिमरण किया। ऐसे महान योगी साधक अध्ययन किया। इतनी वृद्धावस्था में श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने का यह 34वां मुनि दीक्षा दिवस हम सबके लिए वैराग्य का मार्ग योग्य पात्र को पाकर अपना सारा ज्ञान का भंडार दे दिया। एक दिन दिखाने वाला है और संयम की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देने वाला वह भी आ गया जो ज्ञान दान के साथ संयम का दान भी ज्ञानसागर है। इस पावन दिवस पर हम सब की मंगलमयी कामना है कि जी महाराज ने ब्रह्मचर्य श्री विद्याधर जी को दिया। वह पावन दिन जिनशासन के महानतम आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज था आषाढ़ शुक्ला पंचमी वि.सं. 2025 दिनांक 30 जून 19681 शतायु हों और हमें कल्याण का मार्ग बताते रहें, हम उनके अनुसार इस दिन राजस्थान अजमेर में निर्ग्रन्थ यथाजात रूप मुनि दीक्षा के चलकर अपना कल्याण करें। संस्कार भरी सभा के सामने आचार्यश्री ज्ञानसागर जी ने किये। जैसे आदर्शकथा _ आदर्श शासक प्रश्न और उत्तर .यशपाल जैन यशपाल जैन नौशेरवा ईरान का बड़ा न्यायप्रिय बादशाह था। छोटी-से-छोटी। एक दिन एक विद्वान् संत कबीर के पास आये। बोले, 'मुझे चीजों में भी न्याय की तुला उसके हाथों में रहती थी। सबसे अधिक | यह बताइये कि मैं गृहस्थ बनूँ या साधु?' ध्यान वह अपने आचरण का रखता था। ___कबीर ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और अपनी स्त्री एक बार बादशाह जंगल की सैर करने गया। उसके साथ | से कहा, 'दीपक जलाकर ले आओ।' स्त्री गई और दीपक जलाकर कुछ नौकर-चाकर भी थे। घूमते-घूमते वे शहर से काफी दूर निकल ले आई। गये। बहुत देर हो गई। बादशाह को भूख लग आई। उसने नौकरों इसके बाद कबीर उस विद्वान् को लेकर एक वृद्ध साधु के से वहीं भोजन की व्यवस्था करने को कहा। खाना तैयार किया गया। पास गए। उनके घर पर पहुँचकर आवाज दी, 'मेहरबानी करके जरा जब बादशाह खाने बैठा तो उसे साग-सब्जियों में नमक कम लगा। नीचे आ जाइये। दर्शन करना है।' बेचारे साधु ऊपर से उतरकर उसने नौकरों से कहा, 'जाओ, गाँव से नमक ले आओ।' नीचे आये और दर्शन देकर चले गये। ऊपर पहुँचे ही थे कि कबीर दो कदम पर गाँव था। एक नौकर जाने को हुआ तो बादशाह ने फिर पुकारा, 'एक काम है। नीचे आ जाइये।' बिना हिचक के ने कहा, 'देखो, जितना नमक लाओ, उसके पैसे दे आना।' वह फिर नीचे आ गए। बोले, 'बताओ,क्या काम है?' नौकर ने यह सुना तो उसने बादशाह की ओर देखा। बोला, 'सरकार, नमक जैसी मामूली चीज के लिए कौन पैसा लेगा? आप कबीर ने कहा, “एक सवाल पूछना था, पर भूल गया।' उसकी क्यों फिक्र करते हैं? साधु मुस्कराकर बोले, 'कोई बात नहीं है। याद कर लो।' बादशाह ने कहा, 'नहीं, उसे पैसे देकर आना।' इतना कहकर साधु ऊपर चले गए। कबीर ने फिर पुकारा वह नौकर बड़े आदर से बोला, 'हुजूर, जो नमक देगा, उसके फिर आ गए। इस प्रकार कबीर ने कई बार उन्हें नीचे बुलाया और लिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उल्टे उसे खुशी होगी कि उसको अपने | वह आये। पर उनके माथे पर शिकन तक नहीं आई। बादशाह की सेवा करने का अवसर मिला।' बादशाह गम्भीर हो आया। तेज आवाज में उसने कहा, 'यह तब कबीर ने विद्वान् को संबोधित करके कहा, 'देखो, यदि मत भूलो की छोटी चीजों से ही बड़ी चीजें बनती हैं। छोटी बुराई तुम इन साधु जैसी क्षमा रख सको तो साधु बन जाओ और अगर बड़ी बुराई के लिए रास्ता खोलती है। अगर मैं किसी पेड़ से एक मेरी जैसी विनीत स्त्री मिल जाए, जो दिन के उजाले में दीपक जलाने फल तोड़ता हूँ तो मेरे सिपाही उस पेड़ पर एक भी फल नहीं छोड़ेंगे। की कहने पर बिना तर्क किये कि दीपक की क्या जरूरत है, जलाकर मुमकिन है, ईधन के लिए पेड़ को ही काटकर ले जायँ। ठीक है | ले आए, तो गृहस्थ जीवन अच्छा है।' कि एक फल की कोई कीमत नहीं है, लेकिन बादशाह की जरा-सी अपने प्रश्न का समुचित उत्तर पाकर विद्वान् चले गए। बात से कितना बड़ा अन्याय हो सकता है। जो हुकूमत की गद्दी पर बैठता है, उसे हर घड़ी चौकन्ना और चौकस रहना चाहिए।' 16 जून 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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