Book Title: Jinabhashita 2001 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ ही अब तुम्हारा ध्येय हो गया। इस बीच जो भी आया उसने तुम्हें निरन्तर ज्ञान की आराधना में लीन पाया। खूब सबेरे उठकर अपना पिछला पाठ याद करना, नहा धोकर भगवान के अभिषेक पूजन में लग जाना और वहाँ से आकर अत्यंत विनत भाव से नया पाठ पढ़ने के लिए महाराज के चरणों में बैठ जाना, यह रोज सुबह का क्रम था । महाराज के आहार हो जाने के बाद जो भी श्रावक तुम्हें आहार के लिए लिवाने आता था, तुम चुपचाप सिर झुकाए उसके साथ चले जाते थे। आहार के विषय में ज्यादा मीनमेख करना, बचपन से ही तुम्हारे स्वभाव में नहीं था । आहार के प्रति तुम्हारी यह निःस्पृहता ज्यादा दिन छिपी न रह सकी। महाराज को भी मालूम पड़ गया, सो एक दिन धीरे से पूछ लिया वि. विद्याधर ! साधना ठीक चल रही है? तुम सहज भाव से 'हाँ' कहकर चुप हो गए। महाराज के लिए इतना ही पर्याप्त था। वे समझ गए कि अब तुमने आत्म-विकास को अपना साध्य बना लिया है और साध्य की प्राप्ति में देह को सहायक साधन मानकर चल रहे हो । ज्ञान और साधना की यही सही शुरुआत है। आहार के उपरान्त आचार्य महाराज, मन को थकाने वाले काम करने का निषेध करते थे। कहते थे कि विद्याधर, आहार से निवृत्त होकर मन को सजग और शान्त रखना चाहिए, ताकि सामायिक उत्साहपूर्वक हो सके। सामायिक साधना की कसौटी है। सामायिक में एकाग्रता जितनी सधेगी, साधना का आनंद भी उतना ही अधिक होगा। साधना का यही आनन्द ज्ञान में निखार लाएगा। ज्ञान की आराधना, सामायिक की साधना के बिना अधूरी है। इस तरह गुरु कृपा से तुमने अक्षरअक्षर करके हिन्दी भाषा की पूरी वर्णमाला सीखी संस्कृत सीखी। प्राकृत की गाथाएँ 12 जून 2001 जिनभाषित Jain Education International दुहरायीं और निरन्तर सीखते चले गए। जब तुम बोलते-बोलते किसी कठिन शब्द के आ जाने पर चुप रह जाते थे तब महाराज कहते थे कि बोलो, विद्याधर बोलो। चुप क्यों हो गए? तुम महाराज के द्वारा कहे गए एक-एक शब्द का पुनः उच्चारण करने लगते थे। तुमने जो भी सीखा, जितना भी सीखा पूरी लगन, निष्ठा और उत्साह से सीखा। आत्म-हित और लोक-कल्याण की भावना से सीखा। तभी तो आज तुम संस्कृत के मर्मज्ञ और प्राकृत के ज्ञाता हो । हिन्दी भी खूब अच्छी जानते हो। कन्नड़ भाषा तो मातृभाषा के रूप में तुम्हें विरासत में मिली। तुम बहुभाषाविद् हो । मुझे लगता है कि इससे भी कहीं अधिक तुम आत्मविद् हो । कहा जाता है कि जो स्वरूप का निर्माण करती है वह कला है। एक कला वह है जो पाषाण में छिपे भगवान को प्रकट कर देती है। एक कला वह है जो शब्द में छिपे छन्द को मुक्त कर देती है। वीणा में सोए संगीत को जगाने वाली भी एक कला है, पर जगत् में सर्वश्रेष्ठ कला तो वह है जो आत्मा में सोये ब्रह्म को जगाती है। तुम ऐसे ही कलाविद् हो गए हो। मैंने सुना है, वर्षाऋतु में लोगों ने अपनी-अपनी छतरियाँ खोल ली और भीगने से बचने की कोशिश की, तब तुम अपने गुरु के वचनामृत से बाहर-भीतर सब ओर से भीगते चले गए। शीत ऋतु का संदेशा सुनने से पहले ही लोगों ने अपने कान बैंक लिए For Private & Personal Use Only और मोटे लिहाफ में दुबक कर सो गए, लेकिन तुम आत्म-संदेश सुनने सारे आवरण हटाकर अपने गुरु के अत्यंत समीप आते गए। ग्रीष्म ऋतु की तप्त ऊर्मियों से व्याकुल होकर लोगों ने रास्ते पर चलने से इनकार कर दिया, लेकिन तुम तपस्तेज में स्वयं को तपाकर अपने गुरु के बताए मोक्षमार्ग पर चलने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। उनकी चरण-शरण में बैठकर दिन-रात अन्तर्यात्रा में लग गए। ऋतुचक्र पूरा होते न होते तुमने अपने जीवन-चक्र को अद्भुत गति दे दी। शरीर की परिधि पर घूमती चेतना की धारा को आत्म- केन्द्र की ओर प्रवहमान कर दिया। अभीक्षण ज्ञान और , ध्यान तुम्हारे नित्य नियम बन गए। महाराज की दृष्टि तुम्हारे भीतर होने वाले इन सारे परिवर्तनों की साक्षी रही। वे चुपचाप सब देखते रहे। एक दिन मुस्कराकर उन्होंने कहा कि 'विद्याधर, तैयारी पूरी हो गई। तुम मोक्षमार्ग पर चलने में सक्षम हो।' और हवाओं की तरह यह खबर सब ओर फैल गई कि एक और दिगम्बर श्रमण शीघ्र ही अपनी पगचाप से इस धरती को धन्य करेगा। दीक्षा होने से दो दिन पहले, वहाँ के लोगों ने तुम्हें खूब सजाया था और सारे शहर में घर-घर ले जाकर तुम्हारी आरती उतारी थी। तुम्हारी झोली मंगल कामनाओं से भर गयी थी। लोगों के बीच हाथी पर बैठे भीड़ से घिरे होकर भी लगता था मानो तुम एकदम अकेले हो। तुम्हारी इसी भोली-भाली वीतराग चितवन ने सबका मन मोह लिया था। दीक्षा के दिन अपार जनसमूह के बीच, तुमने अपने कोमल हाथों से देखते-देखते केशलुंचन कर लिये और हवा में लहराता एक उत्तरीय कंधे पर डाले, खड़े होकर अपनी विभोर और चकित कर दिया। ओजस्वी वाणी से सारे जनसमूह को भाव www.jainelibrary.org

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