Book Title: Jinabhashita 2001 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ अनुभव किया कि आचार्यश्री की जिनागमसम्मत | उनके महावरे मधुर व्यंग्य और हास्य से या आक्रोश की छाया नहीं रह सकती। उसका निव्याज दिगम्बरचया जनतरा का भा आकृष्ट | परिपूर्ण होते हैं जिससे श्रोता आनन्द का मुख-मंडल सदा मधुर मुस्कान से ही करती है। अनुभव करते हुए उनके उपदेश के रहस्य को अभिमंडित रह सकता है। कुछ साधुओं के चामत्कारिक प्रयोगों से विरक्ति | हसते-हसते ग्रहण कर लेते हैं। आगम में इसे चेहरे देखकर तो डर लगता है, उनके पास आचार्यश्री चामत्कारिक प्रयोगों में रुचि वक्ता का एक महत्त्वपूर्ण गुण माना गया है। | जाने की इच्छा नहीं होती। वे मुँह को ऐसा बनाकर बैठते हैं जैसे किसी का मातम मना एक बार व्यक्तिगत चर्चा में किसी ने कहा नहीं रखते। जहाँ कतिपय आधुनिक जैनसाधुओं कि आचार्य जयसेन ने तो शुभोपयोग को रहे हों अथवा मुनिचर्या उनके लिए एक बोझ में मन्त्रतन्त्र के द्वारा मनोकामनाएँ पूर्ण करने परम्परया मोक्ष का हेतु बतलाया है, किन्तु बन गई हो या वे जीवन में विकट समस्याओं का प्रलोभन देकर भीड़ जोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वहाँ आचार्यश्री इसे मुनिधर्म के सर्वथा अमृतचन्द्र ने नहीं बतलाया। आचार्यश्री का सामना कर रहे हों। वे सोचते हैं कि मुख विरुद्ध बतलाते हैं और इसका सख्ती से सुहासपूर्वक बोले- 'वे जनता पार्टी और पर प्रसन्नता रहना सराग होने का लक्षण है। निषेध करते हैं। उनका कहना है कि सांसारिक कांग्रेस के समान परस्पर विरोधी दलों के इसलिए वे मुख को मुरझाया हुआ रखते हैं, अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं के लिए सदस्य थोड़े ही हैं जो एक-दूसरे के विरुद्ध उदास बनाकर रखते हैं, ताकि वीतरागता या अपने ही शुभाशुभ भावों से अर्जित कर्म बात करेंगे। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी उदासीनता झलके। किन्तु यह बिलकुल उल्टा उत्तरदायी हैं। अतः प्रतिकूलताओं का विनाश शुभोपयोग को परम्परया मोक्ष का हेतु कहा है। इससे तो यही सूचित होता है कि अन्तस् करने के लिए शुभ और शुद्ध भावों का पौरुष में वीतरागता या उदासीनता का अभाव है। एक बार मैंने प्रसंगवश आचार्यश्री से | इसी कारण मन को आत्मानंद की अनुभूति करना चाहिए। वे अपने साथ चामत्कारिक अफवाहें कहा कि भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है - 'सर्वे | न होकर पीड़ा की अनुभूति हो रही है, उसी जोड़े जाने को भी पसन्द नहीं करते। प्रायः गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते' (धन होने पर आदमी | के कारण मुख म्लान, उदास और अप्रसन्न में सभी गुण दिखाई देने लगते हैं)। आचार्यश्री है। जिसके अन्तस् में वीतरागता या अतिश्रद्धालु भक्त अपने गुरु की महिमा बढ़ाने के लिए उनके साथ चामत्कारिक तुरन्त बोले उमास्वामी जी ने भी कहा है - उदासीनता होती है, वही तो आत्मानन्द की अफवाहें जोड़ देते हैं। लगभग बीस साल 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः।' इस सूत्र के शब्दों अनुभूति करता है और उसी के मुख पर पहले की बात है। नैनागिरि के चातुमसि के से आचार्यश्री यह अर्थ व्यक्त करना चाहते प्रसन्नता की झलक रह सकती है। समय जंगल के बीच स्थित मन्दिर में थे कि 'द्रव्य अर्थात् धन का आश्रय पाकर एक मनोवैज्ञानिक ने कहा हैआचार्यश्री का प्रवचन होता था। वहाँ दो सर्प गुणहीन भी गुणवान बन जाते हैं।' यद्यपि यह 'Smiling is the first fundamental एक बिल में बैठे हुए दिखाई देते थे। यह सूत्र का मुख्य अर्थ नहीं है, किन्तु आचार्यश्री principle of human behaviour' देखकर लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि ने शब्दों की अनेकार्थकता के आधार पर अर्थात् मुस्कराना मानवीय आचरण का पहला इन सर्पो का आचार्यश्री से कोई पूर्वजन्म का इससे एक लौकिक सत्य की भी व्यंजना कर मौलिक सिद्धान्त है। तब साधु का तो यह और सम्बन्ध है। वे भी उनका प्रवचन सुनने आते डाली। यह उनकी तीक्ष्ण साहित्यिक प्रतिभा | भी प्रमुख गुण बन जाता है। क्योंकि मुस्कान हैं। यह बात मेरे गले नहीं उतरी। मैंने सोचा पर आश्रित सुहासशीलता का उदाहरण है। अभय, आश्वासन (सान्त्वना), वात्सल्य, यह बात आचार्यश्री से ही स्पष्ट कर लेनी स्मित मुखमुद्रा क्षमा और मार्दव की अभिव्यक्ति का चाहिए। एक दिन मैंने उनसे विनयपूर्वक पूछा सर्वाधिक शक्तिशाली मनोवैज्ञानिक साधन मुस्कानयुक्त मुखमुद्रा आचार्यश्री का - ‘महाराज जी, लोग कहते हैं कि आप जहाँ है। यह अहिंसा की सबसे सरल और प्राथमिक एक अन्य आकर्षक और आह्लादक गुण है। प्रवचन करते हैं वहाँ दो सर्प भी प्रतिदिन आते अभिव्यक्ति है। इसलिए आचार्यश्री के मुखपर ओशो रजनीश जो मूलतः जैन थे, उनकी हैं, क्या यह सच है? महाराज जी मुस्कुराये प्रकट मुस्कान उनकी अन्तरंग वीतरागता कुछ बातें युक्तिसंगत भी होती थीं। उन्होंने और बोले- 'मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ सर्प नहीं और तज्जन्य आत्मानन्दानुभूति का स्वाभाविक | एक जगह लिखा है कि तीर्थंकर प्रतिमाओं की आते, जहाँ सर्प रहते हैं वहाँ मैं पहुँच जाता परिणाम है। उसमें सांसारिक दुःखदर्दो से सबसे बड़ी विशेषता है उनकी प्रसन्न मुद्रा, हूँ। कितनी बेलाग बात थी। कोई दूसरा साधु पीड़ित दर्शनार्थियों के पीड़ाहरण की अद्भुत | क्योंकि जिनके भीतर आत्मिक आनंद छलक होता तो लोगों के द्वारा फैलायी इस अफवाह शक्ति है। रहा हो उनके मुख पर विषाद, शोक, उदासी का अपना प्रभाव बढ़ाने में उपयोग कर या खिन्नता की छाया रह ही नहीं सकती। जिनागम का अवर्णवाद असह्य सकता था। किन्तु आचार्यश्री की वीतरागता आत्मिक आनंद का आवेग मुख को प्रसन्न आचार्यश्री को जिनागम का अवर्णवाद को ऐसा करना गवारा नहीं हुआ। बना देगा। इस आत्मिक आनंद की अभिव्यक्ति असह्य है। एक श्वेताम्बर विद्वान ने 'जैन धर्म सुहासशीलता ही तीर्थकर प्रतिमाओं की प्रसन्न मुखमुद्रा का का यापनीय सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ हाल में ____ आचार्यश्री की एक बहुत बड़ी विशेषता रहस्य है। ओशो रजनीश की यह बात मुझे ही लिखा है। उसमें उक्त विद्वान् ने है सुहासशीलता। उनके वार्तालाप और ग्राह्य प्रतीत हुई। मैं भी मानता हूँ कि जो साधु षट्खण्डागम, कसायपाहुड, मूलाचार, भगवती प्रवचन में सुहास का प्रचुर पुट रहता है। उनकी कठोर तप करते हुए, परीषहों को सहते हुए आराधना, आदि सभी प्रमुख दिगम्बर ग्रन्थों उपमाएँ, उनके दृष्टान्त, उनकी लोकोक्तियाँ, भी आत्मानन्द की अनुभूति में डूबा हुआ है | को यापनीय आचार्यों द्वारा रचित तथा उसके मुख पर कभी पीड़ा, उदासी, चिन्ता | दिगम्बर आम्नाय को आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा - जून 2001 जिनभाषित " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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