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Hemaraj Pande's Caurăsi Bol
दोहरा -
तहां भयो इनको अंकुरौ, क्रम क्रम बढत बढत हुवपूरौ । कहवति कौं यह जैन कहावै, भोजन सविस नाम ज्यौं पावै ॥८॥
जो नर नांहि वस्तु का खोजी, सो न सुमत अमृतरस भोजी । अंतरदृष्टि होइ घट जाकै, भेदबुद्धि परकासै ताकै ॥९॥
आकदुम्धू अर गोदुग्ध, इनमें बडौ विवेक । एक घटावै दिष्टि कौ, तेज बढावै एक ॥१०॥
कहा भयौ जौ पीत है, पीतल कनक न होइ । परगट करै निदग्ध लखि, मुगध न जानै सोइ ॥ ११॥
कहत यथारथ सो लखै, जाकै होइ सुदिष्टि । कहा लखै रवि कै उदय, जो नर अंध निकिष्टि ॥ १२ ॥
सुनै कछु होत नहि, जाकै घट परकास । सोइ नर निज अक्ष सौं, लखै सुलक्ष विलास ॥१३॥
जौं कठोर पाषान परि, वरसै मूसलधार । तौ भी मेघ न करि सकै, कोमलता गुनसार || १४ ||
तावत ज्यौं प्रगट करै, अगनि सुदर्ब कुदर्व्व । त्यही बुध सत असत का, भेद करतु है सर्व ॥ १५ ॥
भूसि उठतु स्वान ज्यौं, दुर्जन सुनि सुनि बात । तभी सत्यारथ कहै सुधी सदा अवदात ॥ १६ ॥ कहा करै सविता पिता, सबही कौं सुख देइ । आधासीसी युक्त नर, सो दुख सहज लहेइ ॥ १७॥
यथारथ कल्पित है, जे नर अंध कुबुद्धि ।
बंधन करि भव वन भमहि, लहहि न कबहु न सुद्धि ॥१८॥
वीतराग दूषनरहित, भूषन भूकुल (?) जास। जिस जग भूषन देव कै, कहहि अहार गरास ||१९||
सवया इकतीसा -
केवली आहार करै मानत ही लागतु है दूषन अठारै महाप्रमाद मोहियै । मोहकर्म नास कारि बीरज अनंत धारी ताहि भूख लगे ऐसे कहतन सोहियै ॥ भुंजत अनंत सुख भोजन सौ कौन का
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