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Hemaraj Pande's Caurāsi Bol
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सवैया इकतीसा
अरिहंत पद वंदि वंदक सरूप मेरौ, ऐसे भाव परमाद गुनताइ बहे है। सातमी धरातै आगै आतमीक रस जागै, तहां वंद्यवंदक विभाव नांही रहे है। साधकदसा मै जहां बाधक है ऐसे भाव, तहां जिन जिन वंदै मंद कैसै कहै है।
पूरन सरूपधारी वीतराग अविकारी, वंदनीक एकै मांनी ग्यानी सरदहै है ॥४७॥ सवैया तेईसा
केवलग्यानविषै जिनवीर कहै अनजान अचानक छींक्यौ। सो न बनै तब छींक उठै जब वात कफामय पित्त जीकौ ।। धातु विवर्जित निर्मल इ(ई) स सरीरविषै नही रोग रती को।
छीक कलंक अडंकित अंकित सुद्ध दसा तहि दोष नहीं कौ ॥४८॥ अडिल्ल
तिरदंडी तापसी कुलंगी भेस रचै आवत सुनि जिन वीरनाथ उपदेसयौ(?) । गौतम स्वामी गनधर व्रत धरै जैन कौं
वाकी सनमुख गयौ भवाति सौं लेनकौ ॥४९।। दोहरा
अविरत सम्यकदरसनी, करै न कुमती मन । क्यों करि गनधर पूज्य पद, करै सुभ गति विधान ।।५०।। जाकी सोलहस्वर्ग तें आगै नाही गम्य ।
तिस नारी को यौ कहै रम्यै(?) मोक्षपद रम्य ॥५॥ सवैया इकतीसा
जाकै सब मलद्वार धारे है निगोद भा(?)र कबहूं न अविकार हिंसा तै रहतु है। सिथिल सुभाव लिए परपंच सब किए लाज कौ समाज(?) धरै अंबर बहुत है । छट्ठा गुनथांन नांहि थिरता न ध्यान माहि मास मास रितु ताहि संकता लहतु है। जगत विलंबिनी कौं हीनदसा लंबिनी कौ यात ही नितंबिनी को मोख न कहतु है ॥५२।।
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