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Padmanabh S. Jaini
Jambu-jyoti
चौपइ
होहि जुगलीया सब मलधारी, कहै सलाका पुरुष निहारी। चौसठि इन्द्र न अधिके जाने, बारह देवलोक ही मानै ।।८५।। जे जादौ (=यादव) जिन मारग पक्षी, तिनको कहै मांस के भक्षी।
मनुज मानुषोत्तर के आगै, जाहै कहै न दूषन लागै ॥८६।। रोडक
कहै नाही नाही काम चउवीस अरु नवै नवोत्तरे लघु समुद्र मांन नाही। ऐरापति नर तजि खेत एक सों साठि मांही [one line missing?- -[८७]।। चौरासी लख जोनि है ए चौरासी बोल।
जै मानै ते मानि है भवसागर कल्लोल ॥८८।। दोहा
नगर-आगरा मैं वसै कौरपाल सग्यान । तिस निमित्त कवि हैम नै किर्यै कवित्त परवांन ।।८९।। दोष भाव धरि नहिं कियो, कियो न निज मत पोष। सत्यारथ उपदेस यह, कर्यो सुजन संतोष ।।९०॥ सत्यारथ वानी प्रगट, घटघट करौ उदोत। संयम(संसय) तिमिर पट[ल] फटौ, बढ्यौ ग्यान सुख होत ॥११॥ इति चतुरासीतिर्वादः सर्व पाखंड... इति चौरासी बोल समाप्तः ।।। लिखतं स्वामी वेणीदास अवरंगावाद महि संवत् १७२३ पोस सुदि पंचमी । यह पोथी का पत्र ९ अंक पत्र नव छै। या पोथी साह जो x x x x x x वाकी छै ।। ग्रंथाग्रंथ संख्या ।।....||मुकाम सांगानैर मध्ये॥
Annotations :
1. Jain Satya Prakāśa, vol. 21. I would like to thank Dr. John Cort for providing me
with a copy of this article. 2. Kasturchand Kasliwal, ed., Rajasthan ke Jain Sastra Bhandarom ki Grantha-suci, ___Jaipur 1957, part 2, entry # 320. 3. Pravacanasāra of Kundakunda, ed. A. N. Upadhye, Rājacandra Jaina Šāstramālā,
Agas 1964, pp. 105-106.
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