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३. जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ
१) जीव :- ‘उपयोग' अर्थात् चेतना, जीव का मुख्य लक्षण है । जिसमें जान हो, जानने और समझने की ताकत हो, जिसे सुख-दुःख का अनुभव होता हो, वह 'जीव' कहलाता है ।
२) अजीव :- चेतनारहित पदार्थ को 'अजीव' कहते हैं । जिसमें उपयोग' न हो, वह तत्त्व 'अजीव' है । जिसमें जीव नहीं है, जो ‘जड' है, जिसमें सुखदु:ख के वेदन की शक्ति नहीं है, वह अजीव' है ।
३) पुण्य :- शुभ कर्मों को ‘पुण्य' कहते हैं ।
४) पाप :- अशुभ कर्मों को 'पाप' कहते हैं ।
५) आस्रव :- मन-वचन-काया के योगों के (हलन-चलन-स्पंदन) द्वारा, पुण्य-पापरूप कर्मों का, आत्मा के अंदर प्रवेश होना, 'आस्रव' है।
६) बन्ध :- आस्रवद्वारों के माध्यम से प्रविष्ट कर्मों का आत्मा के साथ जुड जाने को बन्ध' कहते हैं । ये ई आत्मा को बाँधते हैं या आवृत करते हैं ।
७) संवर :- कर्मों के आने के कारणों को रोकना 'संवर' है । मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक क्रियाओंर नियंत्रण रखना संवर' है।
८) निर्जरा :- आत्मा से जुडे हुए कर्मों को, एकेक करके नष्ट करना 'निर्जरा' है।
९) मोक्ष :- जन्मान्तरों में अर्जित सभी कर्मों का पूर्णत: क्षय होना, 'मोक्ष' है । आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप मेस्थत होना, 'मोक्ष' है । जन्ममरण के चक्र से सदा के लिए मुक्त होना, 'मोक्ष' है।
१०) धर्म :- 'धर्म' द्रव्य अजीव, अमूर्त एवं निष्क्रिय है । वह संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है। जीव और पुद्गलों के गति को, वह सहायक होता है ।
११) अधर्म :- 'अधर्म' द्रव्य अजीव, अमूर्त एवं निष्क्रिय है । वह संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है । जीव और पुलों के स्थिति को, वह सहायक होता है।
१२) आकाश :- 'आकाश' द्रव्य अजीव, अमूर्त एवं निष्क्रिय है । वह संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्म इन चार द्रव्यों को अवगाह अर्थात् अवकाश (जगह) देना, आकाशद्रव्य का कार्य है ।
१३) काल :- 'काल' द्रव्य अजीव एवं अमूर्त है । जो स्वयं परिणमता है तथा अन्य द्रव्यों के परिणमन में सहकारी होता है, वह कालद्रव्य है । जीव और पुद्गलों में जो अवस्थांतर पाये जाते हैं, उनसे कालद्रव्य अनुमित कियाजाता