Book Title: Jainology Parichaya 02
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 4
________________ जैनॉलॉजी-परिचय (२) (१) धम्म (धर्म) प्रस्तावना : इस साल हमें 'जिणवयणाई किताब के आधार से धर्म, विनय, सम्यक्त्व आदि विषयों का स्वरूप विशेष रूप से जानना है । 'जिणवयणाई' शीर्षक का अर्थ है. जिन देवों के वचन ।। इस किताब में आगम या श्रुत नाम से प्रसिद्ध ग्रंथों में से गाथा रूप वचन चयनित किये हैं । 'जिणवयणाई संग्रह में जैन आचार्य द्वारा रचित ग्रंथों में से भी गाथाएँ चुनी हुई है । यद्यपि वे गाथाएँ आचार्यरचित हैं तथापि उनका प्रतिपादन है कि जिनदेवों से परंपरा प्राप्त वचन ही वे नये शब्दों में ग्रथित कर रहे हैं । अगर इस प्रकार के प्रमाणभूत वचनों के आधार से जैनधर्म के तत्त्व जाने जाय तो उसका प्रामाण्य अबाधित रहता है । एक विषय को लेकर अनेक पहलूओं से देखने का मौका भी मिलता है। __ जैनौलॉजी-परिचय (१) पाठ्यक्रम के प्रथम वर्ष में हम सबने ‘जैनत्व की झाँकी' किताब पढ़ी थी । उसमें तीसरे पाठ का शीर्षक था, 'धर्म' । वहाँ कहा था कि, 'जो दुःख से, दुर्गति से, पापाचार से, पतन से बचकर आत्मा को ऊँचा उठानेवाला है, धारण करनेवाला है, वह धर्म है ।' उसके अनंतर जैनधर्म के कुछ पर्यायवाची नाम देकर उसकी भी चर्चा की थी। ___'धर्म' शब्द का प्रयोग भारतीय परंपरा की विशेषता है । अगर हम धर्म शब्द का अंग्रेजी रूपांतरreligion करेंगे तो वह हमारी संकुचितता होगी । क्योंकि religion के अलावा, behaviour (शील), conduct (आचार), merit (पुण्य), virtue (नैतिक गुण), piety (पवित्रता), non-violence (अहिंसा), truth (सत्य), law, duty (कर्तव्य), observance (रीति), donation (दान), kindness (दया), quality (गुणधर्म), आदि विविध अर्थों में संस्कृत तथा प्राकृत साहित्य में धर्म शब्द के प्रयोग पाये जाते हैं। जैनधर्म के प्राचीन आचार्यों ने अलग-अलग काल में, अलग-अलग भाषाओं में 'धर्म' शब्द का वर्णन और स्पष्टीकरण किस प्रकार किया है, यह हम गाथाओं के आधार से देखेंगे । भावार्थ स्पष्टीकरण : (१) धम्मो मंगलमुक्किटुं--- ___ 'दशवैकालिक' नाम के आगमसूत्र की यह पहली गाथा है । भ. महावीर की शिष्य परंपरा में सुधर्मा, जंबू और प्रभव के बाद ‘शय्यंभव' आचार्य हुए । अपने किशोरवयीन पुत्र ‘मणग' को जैनधर्म के आचार-विचार समझाने के लिए उन्होंने दस अध्ययनों की रचना की । उसे ‘दशवैकालिक सूत्र' कहते हैं । उसकी पहली गाथा में बहुत हीसरलसुबोध शब्दों में 'धर्म' के बारे में कुछ तथ्य कहे हैं। जगत् में सबसे 'मंगल' और 'उत्कृष्ट' चीज है 'धर्म' । 'मंगल' शब्द दो शब्दों से बना हुआ है । 'म' याने अशुभ, पाप, बुरी चीजें । ‘गल' याने गलना, दूर हो जाना । धर्म का प्रवेश होते ही सारे अशुभ भाव याने बुरखयाल दूर हो जाते हैं । इसी वजह से धर्म को उत्कृष्टता प्राप्त होती है । आगे जाकर धर्म के तीन विशिष्ट लक्षणों का (distinctive features) निर्देश किया है । वे हैं अहिंसा (non-violence), संयम (restraint) और तप (penance) । ये तीनों केवल जैन धर्म के ही नहीं, किसी भी धर्म के प्राणभूत तत्त्व (vital tenets) हैं। गाथा की दूसरी पंक्ति में 'देवगति' के जीव और 'मनुष्यगति' के जीवों के बारे में खास बात कही है । केबल मनुष्यप्राणी ही 'धर्म' धारण करता है । विवेक, संयम, तप आदि के सहारे पुरुषार्थ करके आत्मिक उन्नति करसकता है । मोक्ष का अधिकारी मानव ही हो सकता है, स्वर्गगति का देव नहीं । इसी विशेषता के कारण देव भी धर्म की निरंतर आराधना करनेवाले मनुष्य को वंदन के पात्र समझते हैं । जैन शास्त्रों में वर्णन है कि जिनदेवों के,तीर्थंकरों के,

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