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है । अगर वह अंत:करण में मौजूद है तो उसीके आधार से कीर्ति, मैत्री, अहंकार-लोप आदि कई गुण हम प्रप्त कर सकते हैं । हर एक गुण की अलग-अलग आराधना नहीं करनी पडती । जिस प्रकार एक अच्छा, सुदृढ बीज बोनेपर, असंख्यगुणा बीज (धान्य)प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार विनीत वृत्ति के आधार से अपने आप कई सद्गुण हमारे आश्रय में आ जाते हैं।
यहाँ 'गुणा' शब्द हम multiplication इस अर्थ में भी ले सकते हैं । विनय का अर्थ अगरknowledge किया तो ग्रीक तत्त्वज्ञ सॉक्रेटिस ने 'knowledge is virtue' यह कही हुई कहावत भी अर्थपूर्ण प्रतीत होती है ।
(४) विवत्ती अविणीयस्स ---
यह गाथा पूर्वोक्त दशवैकालिकसूत्र के 'विनयसमाधि' अध्ययन से ही ली गयी है । कौनसी भी बात दोनों तरफ से जानना (दुहओ नायं) आवश्यक होता है । विनीतता से होनेवाले लाभ अगर पूरी तरह जानने हैं, तो अविनीतता से याने औद्धत्य rudeness से होनेवाली हानियाँ भी अच्छी तरह ध्यान में रखनी चाहिए ।
भावार्थ यह है कि विनय मानों ‘Euro' नाम का सार्वकालीन, सार्वदेशिक चलन है । किसी भी प्रसंग में वह उपयुक्त ही है । अविनय खोटा सिक्का है । वह हमें नाना प्रकार के संकट और दुःखों में ही डालनेवाला है । सिर्फ धर्माचरण के प्रांत में ही नहीं तो व्यावहारिक जगत् में भी विनय और अविनय से होनेवाले लाभ और नुकसान ध्यान में रखने चाहिए।
विनय और अविनयसंबंधी इस चर्चा का सामान्यीकरण (generalisation) करके, हमें इस गाथा से यह बोध मिलता है कि जगत् की किसी वस्तु या व्यक्ति का भाव और अभाव दोनों जानने से ही, उसकी सच्ची अर्हता (worth) पूरी तरह से जानी जा सकती है ।
(५) मणुयहं विणयविवज्जियहं ---
'सावयधम्मदोहा' की इस गाथा में भी, 'विनय के अभाव में क्या होता है ?' - इसका उदाहरण के द्वारा वर्णन किया है । विनय के द्वारा यदि विविध गुणों की आराधना अपने आप हो जाती है तो यह भी स्वाभाविक ही है कि विनय के अभाव में अनेक गुण अपने आप नष्ट हो जाते हैं ।
सरोवर अगर भरापूरा है तो विविध प्रकार के, आकार के, गंध के कमलों से समृद्ध होता है । क्योंकि मल तो पानी के आधार से ही शोभा धारण करते हैं । सरोवर का पानी अगर सूख जाय तो कमलों का नामोनिशान भी नहीं रहेगा । 'विनय के आधार से विविध गुणों का प्रकट होना और विनय के अभाव से गुणों का नष्ट होना'- इस दृष्टांत में अभिप्रेत है । इसी को पिछली गाथा में संपत्ति' और 'विपत्ति' कहा है ।
(६) विणएण विप्पणस्स ---
भगवती आराधना में, 'विनय के अभाव में, उच्च शिक्षा किस प्रकार निरर्थक हो जाती है', इसका जिक्र किया है । उच्च शिक्षा से अगर अहंभाव तथा घमंड की मात्रा बढे तो वह कोरा पांडित्य रह जाता है । इस प्रकार की अहंकारी विद्वत्ता न उसे लाभदायी होती है न दूसरों को । इसलिए उसे निरर्थक कहा है । _ 'विद्या विनयेन शोभते' यह वचन सुप्रसिद्ध है । इस गाथा में विनय को शिक्षा का फल कहा है । इसके पहले की गाथाओं में विनय को शिक्षा का मूल भी कहा है । प्रश्न यह है कि एक ही विनय मूल और फल कैसे होसकता है ? यह गुत्थी थोडा विचार करने पर सुलझायी जा सकती है । नम्रताभाव के बिना सच्ची शिक्षा प्राप्त ही नहीं होती इसलिए वह मूल है लेकिन सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद आदमी जान जाता है कि ज्ञान का क्षितिज अगाध है । इस भावना से वह अधिकाधिक विनम्र हो जाता हैं । यही बात एक संस्कृत सुभाषितकार ने 'भवंति नम्रा: तरवः फलागमैः' इन शब्दों में कही है । मतलब है कि बहुत से फल लगने पर वृक्ष अधिकाधिक झुक जाते हैं । इसीअर्थ