Book Title: Jainology Parichaya 02
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 26
________________ inner-voice के अनुसार चलनेवाले जो व्यक्ति हमें दिखायी देते हैं, उन्हें हम प्राय: अंतरात्मा कह सकते हैं । सब प्रकार के कर्मबंधनों से मुक्त, शुद्धआत्मा को परमात्मा कहते हैं । अरहंत (अर्हत्) जीवन्मुक्त परमात्मा होते हैं । तथा सिद्ध, सिद्धशिलापर आरूढ होते हैं । (४) अक्खाणि बहिरप्पा --- उपरोक्त गाथा का भावार्थ इस गाथा में अलग शब्दों में प्रकट किया है । इंद्रियों को महत्त्व देनेवालों को बहिरात्मा कहा है । अंतरात्मा को हम intuitive consciousness कह सकते हैं । कर्मरूपी कलंक से सर्वथा मुक्त आत्मा को परमात्मा कहा है । इस गाथा में प्रयुक्त 'देव' शब्द जिनेश्वर भगवान का वाचक है । (५) आरूहवि अंतरप्पा --- त्रिप्रकार की आत्माओं के विवेचन से यह धारणा हो सकती है कि यह तीन अलगअलग प्रकार के लोग है और अलग-अलग प्रकार की आत्मा है । प्रस्तुत गाथा से यह स्पष्ट होता है कि एक ही व्यक्ति की किसी समय बहिर्मुख प्रवृत्ति होती है, किसी समय अंतर्मुख प्रवृत्ति होती है और शुद्ध आत्मा निश्चयनय से हर एक में मौजूद होता ही है । आध्यात्मिक शद्धि पाने के लिए ध्यान की आवश्यकता है । ध्यान की तीन श्रेणियाँ इस गाथा में बतायी है। अंतरात्मा में मग्न होने का अभ्यास करने पर बहिर्मुख आत्मा की प्रवृत्तियों पर हम रोक लगा सकते हैं या पूर त्याग भी कर सकते हैं । अंतर्मुखी प्रवृत्तियों को एकाग्र करके हम शुद्ध आत्मस्वरूप पर ध्यान दे सकते हैं। ध्यान की यह पद्धति जिनवरों के द्वारा कही गयी है। (६) अप्पा कत्ता विकत्ता य --- जैनशास्त्र के अनुसार प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है । उसके द्वारा किये हुए कर्मों के अनुसार ही उसका संसरण चला है । अपने किये हुए प्रत्येक कर्म का वही जिम्मेदार है । यहाँ विकत्ता का अर्थ ‘कर्म भोगनेवाला'- इस फ्रार का है । कर्म उसने किये हैं तो वह भोगने में कोई दूसरा व्यक्ति या ईश्वर उसे सहायक नहीं होता । किसी नाकिसी जन्म में उसके सुकृत और दुष्कृतों के सुखदुःखरूप परिणाम उसे अनिवार्यता से भुगतने ही पडते हैं । एक ही जीव खुद का मित्र और शत्रु कैसे बन सकता है ? कहा है कि आत्मा जब सदाचरण में प्रवृत्त होता है ता वह खुद का मित्र होता है । जब वह दुराचरण में मग्न होता है तब खुद का शत्रु बनता है । (७) वरं मे अप्पा दंतो --- ___सामान्यत: कोई भी व्यक्ति बंधन में रहना नहीं चाहता । जादा ही उच्छृखलता दिखाये तो दूसरों के द्वारा दमन ताडन और बंधन की आशंका हमेशा रहेगी । दूसरों के द्वारा डाले गये बंधनों में रहने की अपेक्षा खुद हसंयम और तप का आधार लेकर नियंत्रण में रहने का प्रयास करना, जादा ही अच्छा है। उत्तराध्ययनसूत्र के इस गाथा पर एक अच्छी कथा उद्धृत की जाती है । वन में तापसाश्रम में एक युवा हाथी था । वह बारबार आश्रम के वृक्ष एवं कुटियाँ उद्ध्वस्त करता था । तापसकुमारों ने राजा के पास शिकायत की । राजा ने सिपाहियों से उस हाथी को पकडवाया और उसे लोहे की बेडियों में डाला । हाथी ने ताकद लगाकस्तंभ ही उखाड दिया और फिर आश्रम में जाकर आश्रम उद्ध्वस्त किया । इस घटना की दो-तीन बार पुनरावृत्ति हुई ।आखिर एक तापसकुमार ने हाथी से कहा, 'राजा की बेडी में तुम अपनेआप शांत रहो । देखो ! तुम्हारे अनुकूल ही स्म हो जाएगा ।' हाथी बेडियों में शांत रहने लगा । राजा को विश्वास हुआ । उसने स्वयं उसे बंधनहीन कर दिया । न में रहने का अगर निर्णय लिया तो सच्चे अर्थ में बंधनमुक्त होने की संभावना अधिक ही

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