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अर्थ 'यतना' है । 'यतना' याने ध्यानपूर्वक, एकाग्रतापूर्वक गमनागमन आदि प्रवृत्तियाँ करना । अजयं' शब्द का अर्थ है, असावधानी से या प्रमादपूर्वक गमनागमन आदि करना । जैनशास्त्र में यतना-अयतना अर्थात् प्रमादअप्रमाद को बहुत ही महत्त्व दिया है । अप्रमादपूर्वक किये हुए कर्मों से कर्मबंध नहीं होते । प्रमादयुक्त कर्मेसे पापकर्म के बंध होते हैं और उसके बुरे परिणाम भुगतने ही पडते हैं।
यद्यपि यहाँ 'चरमाणो' शब्द का प्रयोग है तथापि उसमें खाना-पिना-सोना-उठना-बैठना-बोलना आदि सभी क्रियाएँ समाविष्ट है।
इस गाथा में प्रयुक्त 'प्राण' (पाण) शब्द त्रस' प्राणियों का वाचक है । उसी प्रकार 'भूत' (भूय) शब्द 'स्थावर' प्राणियों का वाचक है।
‘अप्रमाद की ओर ध्यान आकृष्ट करना', इस गाथा का प्रयोजन है ।
(५) आदाणे णिक्खेवे ---
'अष्टप्रवचनमाता' विषय के अंतर्गत पाँच समितियों का विचार हमने किया है । समिति, अप्रमाद और अहिंसा का बहुत ही निकटवर्ती संबंध है । प्रस्तुत गाथा की पहली पंक्ति में प्राय: सभी समितियों का उल्लेख है।
अप्रमत्त याने यतनावान् और दयायुक्त होने से व्यक्ति अहिंसक होता है ।
(६) जीववहो अप्पवहो ---
'जीववहो अप्पवहो ---' इस पदावलि में यह अर्थ निहित है कि अगर मैं खुद के स्वार्थ के लिए अन्य जीव का घात करूँगा तो परिणामस्वरूप या अंतिमत: पापबंध होने के कारण घात तो मेरा ही होगा ।याने हिंसक क्रिया हिंसा करनेवालो को ही अधिक घातक होती है ।
यही भावना जीवदया के समय भी मन में रखनी चाहिए । अगर मैं किसी पर दया या उपकार करू तो, वह दया भी परिणामस्वरूप, अंतिमतः, स्वयं के प्रति ही दया होगी । क्योंकि पुण्यप्राप्ति रूप फल तो स्वयं को ही मिल्मा है ।
हिंसा किस प्रकार टालनी चाहिए ?' - यह स्पष्ट करने के लिए विषैले काँटे का उदाहरण दिया है । विषैले काँटे का चुभना या उससे बचना, काँटे की अपेक्षा से मुझे ही घातक या फायदेमंद है । काँटा चुभनेसे मुझे ही बाधा होगी । पूरा शरीर विषयुक्त होकर शायद प्राण भी चले जायेंगे । काँटे से बचने से मैं बाधा टाल सकूँगा याने भविष्यकालीन अपरिमित हानि दूर कर सकूँगा । अगर मैं किसी की हिंसा नहीं कर रहा हूँ, तो इसका मतलब यहनहीं की मैं दूसरों पर कोई उपकार कर रहा हूँ । अहिंसा का पालन मुझे अपना स्वाभाविक धर्म लगना चाहिए । यही बात दया और दान की भी है।
(७) देव-गुरूण णिमित्तं ---
प्रस्तुत गाथा की एक विशिष्ट पार्श्वभूमि है । गाथा का अर्थ लगाते समय वह हमें ध्यान में रखनी चाहिए । समकालीन हिंदु समाज में पशुबलिप्रधान यज्ञ एवं आडंबरप्रधान उत्सवों की भरमार थी। देव, गुरु आदि निमित्तों से हिंसा करने में कोई पाप नहीं है, उससे कर्मबंध भी नहीं होता' - यह विचारधारा मौजूद थी।
इसके बिलकुल विपरीत, जिनदेवों ने 'हिंसारहित होना' - यह धर्म का प्रथम लक्षण माना था । प्रस्तुत गाथा में कहा है कि धर्म एक साथ 'हिंसासहित' और 'हिंसारहित' दोनों प्रकार का कैसे हो सकता है ? जैनशास्त्रके अनुसार जिनवचन कभी असत्य नहीं होते । इसलिए हिंसायक्त धर्माचरण को असल में कोई स्थान नहीं है।
(८) पाणे य नाइवाएज्जा ---
जो पाँच समितियों से युक्त होता है, उसे 'समित' कहते हैं । जो खुद को समित कहलाता है, उसका यह प्रथा