Book Title: Jainology Parichaya 02
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune

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Page 19
________________ ४) नाण (ज्ञान) प्रस्तावना : ज्ञान की मीमांसा एवं चर्चा ( Epistemology) यह जैन शास्त्र का प्रमुख विषय है । धर्म एवं तत्त्वज्ञान मनुष्यकल्पित होने के कारण और मनुष्यों के व्यापारों में ज्ञान का प्राधान्य होने के कारण कई तत्त्वज्ञों ने अपनी अपन विचारप्रणाली में ज्ञान की चर्चा अवश्य की है । जैन शास्त्र में ज्ञान के विविध प्रकारों के द्वारा ज्ञानचर्चा का प्रारंभ होता है । भावार्थ स्पष्टीकरण : (१) पढमं नाणं तओ दया -- दशवैकालिक की यह पदावलि वारंवार उद्धृत की जाती है । यहाँ प्रयुक्त 'दया' शब्द में अनेक मुद्दों का समावेश है । धार्मिक आचरण, अहिंसा, परोपकार, दान आदि कई बातें 'दया' शब्दद्वारा निर्दिष्ट हो सकती है । जो भी व्यक्ति ‘मुनि' या ‘साधु' शब्द से वाच्य है उनको चाहिए कि वे प्रथम ज्ञान प्राप्त करें और बाद में उसके अनुसार आचरण करें । गाथा की दूसरी पंक्ति में श्रोता से एक प्रश्न पूछा है और उसका उत्तर उसी प्रश्न में निहित है । ज्ञान से क्याश्रेयस (हितकर) है और क्या अश्रेय अर्थात् पाप है, इसका बोध होता है । पुण्य और पाप का सही मतलब जाननेपर ही विवेकपूर्वक आचरण हो सकता है । यह ज्ञान अर्थात् विवेक न हो तो अज्ञानी व्यक्ति श्रेयस की ओर प्रवृत्ति जै पाप से निवृत्ति कैसे करेगा ? अपने कुमारवयीन पुत्र को समझाने के लिए आचार्यश्री ने इतनी सुलभ भाषा का प्रयोग किया है । (२) तत्थ पंचविहं नाणं जानने की क्रियाद्वारा जो प्राप्त होता है वह 'ज्ञान' है । ज्ञान के पाँच प्रकार बताकर उसका स्वरूप स्पष्ट किया जाता है । उत्तराध्ययनसूत्र की इस गाथा में ज्ञान का पहला प्रकार श्रुतज्ञान (verbal knowledge) बताया है । सुनकर या पढकर जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है उसे 'श्रुतज्ञान' कहा जाता है । जैन शास्त्र में आगमों के ज्ञान (scriptural knowledge) को भी 'श्रुतज्ञान' कहा है । सभी प्रकार का informative knowledge इस category: में आता है । अभिनिबोधिक ज्ञान का दूसरा नाम ' मतिज्ञान' भी है । पाँच इंद्रियाँ तथा मन के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता हैउसे ‘मतिज्ञान’ (sensory knowledge) कहते हैं । यहाँ 'मति' शब्द बुद्धिवाचक नहीं है, इंद्रियवाचक है । पाँचों इंद्रियोंद्वारा ज्ञान प्राप्त होने के लिए 'मन' की आवश्यकता है तथा मन के द्वारा प्राप्त किये हुए सुख-दुःख आई के ज्ञान को भी मतिज्ञान ही कहते हैं । स्मरण (memory) और चिंतन (reflection) आदि व्यापार मतिज्ञान में ही अंतर्भूत किये हैं । मर्यादित क्षेत्र में होनेवाले रूपी (material and corporeal) पदार्थों के ज्ञान को 'अवधिज्ञान' (clairvoyance, visual intution) कहते हैं । जैन शास्त्र के अनुसार यह ज्ञान साक्षात् आत्मा (individual being, soul) को होता है । इस ज्ञान के लिए इंद्रियाँ और मन की आवश्यकता नहीं होती । अवधिज्ञान का स्वामी एक जगह में स्थित होनेपर भी दूरवर्ती क्षेत्र में होनेवाले वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर सकता है । दूसरों के मनोगत भावों को जानना - मन: पर्यायज्ञान (telepathy, mental intution) है । जैन शास्त्र के अनुसार यह ज्ञान भी साक्षात् आत्मा के द्वारा ही होता है । भूत-भविष्य - वर्तमान तीनों काल में त्रैलोक्य में होनेवाले सभी रूपी और अरूपी पदार्थों का ज्ञान 'केवलज्ञान' (omniscience, perfect knowledge) है । केवलज्ञानी व्यक्ति को ही जैन शास्त्र में 'सर्वज्ञ', 'सर्वदर्शी' कहते हैं ।

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