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सकता । सम्यक्त्व सहित तप ही सच्चे अर्थ में आत्मिक शुद्धि प्रदान करता है ।
खुद की धार्मिकता दिखाने के लिए, प्रशंसा पाने के लिए या अन्य किसी कारण बलात् इंद्रियसंयम किया तो वह संयम न होकर दमन ही होता है । सम्यक्त्वसहित न होने के कारण इस प्रकार का दमन आत्मा का गोपन करने में समर्थ नहीं होता
सारांश यह है कि ज्ञान, तप और संयम की सार्थकता 'सम्यक्त्व' के बिना नहीं होती ।
(७) सम्मत्तसलिलपवहो
आचार्य कुंदकुंद दिगंबर परंपरा के एक प्रभावशाली प्राचीन आचार्य थे । उनकी विशाल ग्रंथसंपदा में 'अष्टहुड' नाम के ग्रंथ का स्थान अनन्यसाधारण है । 'पाहुड' (प्राभृत) का मतलब है उपहार, संबल अथवा पाथेय । अध्यात्मार्ग पर अग्रेसर, साधक को साथ में दिया हुआ यह भाता है । इन आठ पाहुडों में पहला पाहुड ‘दर्शनपाहुड' है । सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताना इस पाहुड का प्रतिपाद्य है ।
प्रस्तुत गाथा में सम्यक्त्व को पानी के नित्य प्रवाहित धारा की उपमा दी है । यह धारा दिखायी नहीं देती क्योंकि यह हृदय में प्रवाहित होती है । प्रवाहित जलधारा के सामने बालू का बाँध नहीं टिक सकता । उसी प्रकार सम् के प्रवाह के सामने कर्मरूपी बाँध या आवरण तत्काल विनष्ट हो जाता है ।
किंबहुना हम यह कह सकते हैं कि सम्यक्त्वी व्यक्ति का कर्मबंध मूलत: गाढा न होकर बालू के बाँध के सम्म हलका ही होता है । बांधते समय ही बंध हलका होना सम्यक्त्व की खासियत है ।
(८) जह मूलाओ खंधो
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वृक्ष
इस गाथा में वृक्ष का रूपक निहित है । मोक्षमार्ग को वृक्ष कहा है । मोक्षमार्ग दर्शन - ज्ञान - चारित्रात्मक है। सम्यक्त्व जड या मूल के समान है । ज्ञान के स्कंध या तने के समान है । चारित्र शाखा, प्रशाखा एवं पत्ते, फूल समान है । मोक्ष की तुलना हमेशा वृक्ष फल से की जाती है । मूल याने सम्यक्त्व जितना दृढ होगा उतना ही वृक्ष एवं उसका फल भी अच्छा होगा ।
इस गाथा में प्रयुक्त ‘जिणदंसण' शब्द का अर्थ है - जिनेंद्रकथित शब्दों पर सच्ची श्रद्धा ।
(९) सम्मत्तरयणभट्ठा
यह गाथा भी दर्शनपाहुड से ही उद्धृत की है । इसमें सम्यक्त्व को 'रत्न' कहा है । अगर व्यक्ति ने एक बार पाकर बाद में सम्यक्त्वरूपी रत्न गँवाया, तो उसकी क्या अवस्था होती है इसका वर्णन इस गाथा में किया है । गाथा की दूसरी पंक्ति में अभ्यास का याने exercise और practice का महत्त्व अधोरेखित किया है । गायनकला में माहिर होने के लिए रियाज की आवश्यकता होती है । विज्ञान के सिद्धांत प्रस्थापित करने के लिए वारंवार experiments करने पडते हैं । उसी प्रकार श्रद्धा दृढ रखने के लिए बारबार हर तरह से उसपर चिंतन, मनन आदि रूप से भावन करना आवश्यक है । लक्ष पर टिके रहने के लिए की हुई इस भावना को 'आराधना' कहा है । उचित आराधना के अभाव में व्यक्ति को सांसरिक विषयों में गुम हो जाने का भय कायम रहता है । यही विचार 'भमंति तत्थेव' इस पदवलि से सूचित किया है । सम्यक्त्व की आराधना से ही साधक आगे बढ सकता है ।
(१०) दंसणभट्ट भट्टो
प्रस्तुत गाथा में दर्शनभ्रष्ट और चारित्रभ्रष्ट की तुलना की है । चारित्रभ्रष्टता याने किसी वजह से आचरण हुई चूक या भूल । योग्य पश्चात्ताप एवं प्रायश्चित्त से आचरण की भूल हम सुधर सकते हैं । लेकिन दर्शनभ्रष्टता ने श्रद्धा से विचलित होना । एक बार आदमी श्रद्धा से डाँवाडोल हुआ तो उसके आचरण की आधारशिला ही विनष्ट होती है