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बचना और स्वधर्म पर टिके रहना, 'अमूढदृष्टि' है ।
५) उपबृंहण : गुणीजनों की प्रशंसा से गुणों का परिवर्धन करना, ‘उपबृंहण' है । हर एक व्यक्ति में गुण के साथ दोष भी पाये जाते हैं । दोषों की चर्चा करके, सबके सामने उनकी त्रुटियाँ न निकालना, ‘उपगूहन' कहा जाता है । प्रसंगवश उपबृंहण के लिए उपगूहन भी आवश्यक है ।।
६) स्थिरीकरण : स्वीकृत श्रद्धा पर अटल रहना, 'स्थिरीकरण' है । नियम भले छोटा ही क्यों न हो, मन:पूर्वक स्वीकारने के बाद, किसी भी परिस्थिति में उसका दृढता से पालन करना, स्थिरीकरण का ही एक उदहरण है । 'गंगा गये गंगादास, जमुना गये जमुनादास', इस प्रकार की भाववृत्ति व्यवहार में भी हानिकारक होती है, तो अध्यात्म में कैसे फलदायी होगी ?
७) वात्सल्य : माता का अपत्य के प्रति जो भाव होता है, वही भाव हर प्राणिमात्र के प्रति रखना, 'वात्सल्य'
८) प्रभावना : धर्म के प्रति खुद की आस्था होना तथा दूसरों की आस्था या रुचि बढाना, ‘प्रभावना' है ।
(५) समत्तादिचारा ---
अतिचार का मतलब है transgression अर्थात् विहित मर्यादा का उल्लंघन । सम्यक्त्व अथवा सम्यग्दर्शन जैन तत्त्वज्ञान एवं आचार की आधारशिला है । इसलिए प्रस्तुत गाथा में निहित पाँच अतिचार व्रती श्रावक और साधु के लिए समान हैं, क्योंकि दोनों के लिए सम्यक्त्व साधारण धर्म है । इन पाँच में से शंका, कांक्षा और विचिकित्सा का स्वरूप, सम्यक्त्व के आठ अंग बतलाते समय पहले ही स्पष्ट हो गया है । जैसे कि नि:शंका सम्यक्त्व का अंग हैतो शंका या संदेह करना सम्यक्त्व का अतिचार है । अन्य दो अतिचारों के बारे में इसी तरह समझना चाहिए।
'परदिट्टीण पसंसा' - इसका मतलब है जिनकी दृष्टि सम्यक नहीं है, जो माध्यस्थ भाव न रखकर संकुचित एवं एकांतिक मतप्रदर्शन करते हैं, उनकी प्रशंसा न करना ।
'आयतन' का अर्थ है ‘पात्र' अथवा 'योग्य' । जो कुपात्र एवं अयोग्य व्यक्ति की दान आदि के द्वारा सेवा करता है, उसका यह आचरण उसके स्वयं के सम्यक्त्व में बाधा डाल सकता है । इसी वजह से 'कुपात्रसेवा' अत्विार है । आठ अंगों में सम्यक्त्व का सकारात्मक (positive) रूप कहा है । अतिचारों में सम्यक्त्व का नकारात्मक (negative) स्वरूप बताया है ।
(६) नाणं पगासयं ---
यह गाथा श्वेतांबर आचार्य वीरभद्रकृत आराधनापताका नामके प्रकीर्णक से चयनित की है । इस प्रकीर्णक में सामान्यतः सम्यक् ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप का विवेचन है । संलेखना या संथारा का विस्तृत वर्णन इसका प्रतिपाद्य है।
इस गाथा का भावार्थ यह है कि व्यक्ति के द्वारा प्राप्त किया हआ सभी प्रकार का ज्ञान मोक्षमार्ग का प्रकाशक होने में समर्थ नहीं होता । व्यक्ति के द्वारा आचरित सभी प्रकार का तप 'शोधक' याने आत्मा की आध्यात्मिकशुद्धि करने में समर्थ नहीं होता । उसी तरह सभी प्रकार का संयम मेरी आत्मा को दोष या दुष्प्रवृत्ति से रोकने में समर्थ नहीं होता ।
ऐहिक या लौकिक पदवियों से मुझे आध्यात्मिक मार्गदर्शन मिलने की संभावना नहीं है । यहाँ ज्ञान का मतलब है - षड़द्रव्यों एवं नवतत्त्वों का ज्ञान । यह ज्ञान भी केवल शाब्दिक (verbal) न होकर सम्यक्त्व के सहित ही होना अपेक्षित है।
सेहत अच्छी रखने के लिए अगरdiet या fast किया तो अच्छी सेहत प्राप्त होगी लेकिन इस तप से आध्यात्मिक शुद्धि नहीं होंगी । खाने के लिए कुछ नहीं मिला तो यह अनशन धार्मिक दृष्टि से कतई ‘तप' की कोटि में नहीं आ