Book Title: Jainology Parichaya 02 Author(s): Nalini Joshi Publisher: Sanmati Tirth Prakashan Pune View full book textPage 8
________________ (८) छन्नं धम्म --- ___ 'जयवल्लभ' नाम के श्वेतांबर आचार्यश्री ने जैन माहाराष्ट्री भाषा में प्राकृत सुभाषितों का एक बहुत ही अच्छा सुभाषित संग्रह बनाया है । उस संग्रह का नाम है - ‘वज्जालग्ग' । इन सुभाषितों में भाषासौंदर्य और विचारसौंदर्य दोनों निहित होते हैं । इनसे हम बोध भी प्राप्त कर सकते हैं । मनुष्य को 'भाग्यशाली' कब कहा जाय इसके चार निकष इस गाथा में दिये हैं । भाग्यशाली आदमी दान, दया, उपवास, तप, जप आदि स्वरूप में धर्म तो करता है लेकिन वह निजी जीवन में 'छन्न' याने अप्रकट रूप में करता है । अपने धर्माचरण का दिखावा या आडंबर नहीं करता । उसका पुरुषार्थ या पराक्रम उद्योगशीलता के रूप में हमेशा प्रगट रहता है । उसकी कामभावना स्व स्त्री के अलावा अन्य अन्य स्त्रियों की अभिलाषा से मुक्त रहती है । किसी भी तरह से अपने चारित्र्य पर वह दाग नहीं लगने देता । सामाजिकता का खयाल मन में रखकर वह कलंक से दूर ही रहता है। इस गाथा में सामान्य मनुष्य के नैतिक वर्तन का चार मुद्दों से जिक्र किया है । लेकिन धर्म के बारे में आवश्यक चीज बतायी है कि किसी भी प्रकार खुद की धार्मिकता का प्रदर्शन मत करें । (९) धम्मो धणाण मूलं --- यह गाथा भी ‘वज्जालग्ग' में एक सुभाषित के रूप में पायी जाती है । चार बातों को मूल कहा है । पत्नी, विनय और दर्प के बारे में जो कहा है वह सत्य है और व्यवहार्य भी है । लेकिन 'धम्मो धणाण मूलं' इस पक्ष्वलि का अर्थ थोडे अलग तरीके से लगाना होगा । हमें इस जन्म में प्राप्त जो भी धन, दौलत, सुख-समृद्धि का याने शुभक्रियाओं का है फल है । दूसरे नजरिये से हम यह भी कह सकते हैं कि धार्मिकता का याने साधनशुचिता का (pious or faultless resourses) आधार लेकर जो संपत्ति कमायी जाती है वही हमें सुख-शांति देने में समर्थ होती है । धम्मो धणाण मूलं' का अर्थ इसी प्रकार लगाना ही ठीक होगा अन्यथा धर्म संपत्ति का मूल है इस अर्थ को केर काम नहीं चलेगा । क्योंकि व्यवहार में अधिकसारी धन संपत्ति, अधर्म के सहारे ही कमायी जा सकती है । मारे पर्वकत सारांश : इन गाथाओं में सामान्यतः धर्म का स्वरूप बताया गया है । जैन, हिंदु, ख्रिश्चन, शीख आदि शब्द तो धर्म के विशेषण है और वे विशिष्ट आचारपद्धति के द्योतक है । इन गाथाओं के अभ्यास से मालूम होता है कि जैनधर्म की व्याख्या करने के ये प्रयास नहीं है क्योंकि 'धर्म' यह संकल्पना बहुआयामी (dynamic) है । इसलिए जैनधर्म के आचार्यों ने भी अनेक पहलूओं से धर्म का चिंतन करके अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये हैं । **********Page Navigation
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