Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ करण १. अपूर्वकरण निर्देश उ. 7 " उ.. उ. B न प ४१ ज - ज ज. % 3ज. पीछे अन्तका निर्वर्गणा काण्डकका अन्त समय सम्बन्धी प्रथम रखण्डकी जघन्य परिणाम विशुद्धता अनन्तानन्तुगुणी है । काहै तै । यातै पूर्व पूर्व विशुद्धतातै अनन्तानन्तगुणापनौ सिद्ध है। बहुरि तातै अन्तका निर्वर्गणा काण्डकका प्रथम समय सम्बन्धी अन्त खण्डकी उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता अनन्तगुणी है। ताकै ऊपरि अन्तका निर्वर्गणा काण्डकका अन्त समय सम्बन्धी अन्तखण्डकी उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धता पर्यन्त अनन्तगुणा अनुक्रमकरि प्राप्त हो है। तिनि विष जे ( ऊपरिक ) जघन्यतै ( नीचेके ) उत्कृष्ट परिणामनिकी विशुद्धता अनन्तानन्तगुणी है ते इहाँ विवक्षा रूप नाहीं है, ऐसे जानना। (ध.६/१.६-८,४/२१८-२१६) । (ऊपर ऊपर के समयों के प्रथम खण्डों की जघन्य परिणाम विशुद्धिसे एक निर्वर्गणा काण्डक नीचेके अन्तिम समयसम्बन्धी अन्तिम खण्डको उत्कृष्ट परिणाम विशुद्धि अनन्तगुणी कही गयी है।) उसकी संदृष्टि-(ध.६/१,६-८,४/२१९) (गो.जी.जी.प्र व भाषा/ ४६/१२०)। स्थितिबन्धका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। एक एक स्थिति बन्धकाल के पूर्ण होनेपर पत्योपमके संख्यातवें भागसे हीन अन्य स्थितिको बान्धता है (दे० अपकर्षण/३ )। इस प्रकार संख्यात सहस्र बार स्थिति बन्धापसरणों के करनेपर अध प्रवृत्तकरणका काल समाप्त होता है। ____ अधःप्रवृत्त करणके प्रथमसमय सम्बन्धी स्थितिबन्धसे उसीका अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। यहाँ पर ही अर्थात अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें, प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके जो स्थितिबन्ध होता है. उससे प्रथम सम्यवस्व सहित संयमासंयमके अभिमुख जीवका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। इससे प्रथमसम्यक्त्व सहित सकलसंयमके अभिमुख जीवका अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हीन होता है। (इस प्रकार इस करणमें चार आवश्यक जानने-१. प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि; २. अप्रशस्त प्रकृतियोंका केवल द्विस्थानीय बन्ध और उसमें भी अनन्तगुणी हानिः ३. प्रशस्त प्रकृतियों के चतु'स्थानीय अनुभागबन्धमें प्रतिसमय अनन्तगुणी वृद्धिः ४. स्थितिबन्धापसरण) (ल. सा./न./३७-३६/७२), (क्ष.सा./मू./३६३/४८५)/(गो.जी./जी. प्र./४६/११०/१४)/(गो. क./जो.प्र /५५०/७४३/६)। ८. सम्यक्त्व प्राप्तिसे पहले मी सर्व जीवोंके परिणाम अधःकरण रूप ही होते हैं। ध. ६/१,६-८,४/२१७/७ मिच्छादिट्ठीआदोणं द्विदिबंधादिपरिणामा वि हेट्ठिमा उवरिमेसु, उवरिमा हेछिमेसु अणुहरं ति, तेसिं अधावत्तसण्णा किण्ण कदा । ण, इठ्ठत्तादो । कथं एद णव्वदे । अंतदीवयअधापवत्तणामादो।-प्रश्न-मिथ्यादृष्टि आदि जीवोंके अधस्तनस्थितिबन्धादि परिणाम उपरिम परिणामों में और उपरिम स्थितिबन्धादि परिणाम अधस्तन परिणामों में अनुकरण करते है, अर्थात परस्पर समानताको प्राप्त होते हैं। इसलिए इनके परिणामोंकी 'अधः प्रवृत्त' यह संज्ञा क्यों नहीं की 1 उत्तर-नहीं, क्योंकि यह बात इष्ट है। प्रश्न-यह कैसे जाना जाता है ! उत्तर-क्योंकि 'अधः प्रवृत्त' यह नाम अन्तदीपक है। इसलिए प्रथमोपशमसम्यक्त्व होनेसे पूर्व तक मिथ्यादृष्टि आदिके पूर्वोत्तर समयवर्ती परिणामों में जो सदृशता पायी जाती है, उसकी अधः प्रवृत्त संज्ञाका सूचक है। ज.ज.ज. ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज.ज. ज.ज. ७. अधःप्रवृत्तकरणके चार आवश्यक ६/९-६-८,५/२२२/६ अापत्रत्त करणे ताव ठिदिखंडगो वा अणुभागखंडगो का गुणसेडी बा गुणसंकमो वा णत्थि। कुदो। एदेसि परिणामाणं पुव्वुत्तचउबिहकज्जुप्पायणसत्तीए अभावादो। केवलमणंतगुणाए विसोहीए पडिसमयं विसुज्झतो अप्पसत्थाणं कम्माणं बेठ्ठाणियमणुभागं समयं पडि अणंतगुणहीणं बंधदि, पसत्थाणं कम्माणमणुभागं चदुट्ठाणियं समयं पडि अणंतगुणं मंधदि। एत्थडिदिबंधकालो अंतोमुत्तमेत्तो। पुण्णे पुण्णे ठिदिबंधे पलिदोव- मस्स संखेज्जदिभागेणूणियमण्णं दिदि बंधदि । एवं संखेजसहस्सवार द्विदिबंधोसरणेसु कदेसु अधापवत्तकरणद्धा समप्पदि । अधापत्तकरणपतमसमयट्ठिदिबंधादो चरिमसमयििदबंधो संखेज्जगुणहीणो। एत्थेत्र पढमसम्मत्तसंजमासंजमाभिमुहस्स हिदिबंधो संखज्जगुणहोणो, पढमसम्मत्तसंजमाभिमुहस्स अधापवत्तकरणचरिमसमयििदबंधो संखेज्जगुणहीणो ।" अध.प्रवृत्तकरणमें स्थित्तिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणी, और गुण संक्रमण नहीं होता है। क्योंकि इन अध-प्रवृत्त परिणामोंके पूर्वोक्त चतुर्विध कार्योके उत्पादन करनेकी शक्तिका अभाव है।-१. केवल अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ यह जीव-२ अप्रशस्त कर्मोके द्विस्थानीय अर्थात निब और काजीररूप अनुभागको समय समयके प्रति अनन्तगुणित हीन बान्धता है;-३. और प्रशस्त कोंके गुड़ खाण्ड आदि चतुःस्थानीय अनुभागको प्रतिसमय अनन्तगुणित बान्धता है। ४, यहाँ अर्थात अधःप्रवृत्तकरण कालमें, ५. अपूर्वकरण निर्देश 1. अपूर्वकरणका लक्षणध. १/१,१,१७/गा. ११६-११७/१८३. भिण्ण-समय-ट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सम्बदा सिरसो। करणेहि एकसमयट्ठिएहि सरिसो विसरिसो य ।११६। एदम्हि गुणट्ठाणे विसरिस-समय-ट्ठिएहि जीवेहि । पुवमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ।११७।। ध.१/१,१,१६/१८०/१ करणाः परिणामा' न पूर्वाः अपूर्वा । नाना जीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यान्तर्विवक्षितसमयवतिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत् । अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणाः।"-- १. अपूर्वकरण गुणस्थानमें भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों की अपेक्षा कभी भी सदृशता नहीं पायी जाती है, किन्तु एक समयवर्ती जीवोंके परिणामों की अपेक्षा सदृशता और विसदृशता दोनों ही पायी जाती है ।११६। (गो. जी./मू /१२/१४०) इस गुणस्थानमें विसदृश अर्थात भिन्न-भिन्न समयमें रहनेवाले जीव, जो पूर्व में कभी भी प्राप्त नही हुए थे, ऐसे अपूर्व परिणामोंको ही धारण करते हैं। इसलिए इस गुणस्थानका नाम अपूर्वकरण है ।११७४ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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