Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 21
________________ करण ७. अपूर्वकरण व अधः प्रवृत्तकरण में कथंचित् समानता असमानता प. २/९.९.१०/१००/४ एतेनापूर्व विशेषेण अत्र प्रवृत परिणामम्युदासः कृत इति व्यतत्रतनंपरिणामानाम पूर्वत्वाभावाद। इसमें दिये गये अपूर्व विशेषणसे अधःप्रवृत परिणामों का निराकरण किया गया है; ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि, जहाँ पर उपरितनसमयवर्ती जोवोके परिणाम अधस्तनसमयवर्ती जीवो के परिणामोंके साथ सदृश भी होते हैं और विसदृश भी होते है ऐसे अधःप्रवृत्त में होनेवाले परिणामो में अपूर्वता नही पायी जाती (ऊपर ऊपर समयो में नियमसे अनन्तगुण विशुद्ध विसदृश ही परिणाम अपूर्व कहला सकते है ) । स.सा./सू./५२०८४ निदियकरणादिसमपादतिमसमओति अवरवरद्ध। हिमदिया सबे होति अरोण गुणियकमा ५२ दूसरे करणका प्रथम समयतै लगाय अन्त समयपर्यन्त अपने जघन्यते अपना उत्कृष्ट अर पूर्व समयके उत्कृष्टतै उत्तर समयका जघन्य परिणाम क्रमतें अनन्तगुणी विशुद्धता ती सर्वकी चाल जानने । ( विशेष देखो करण १५/४ तथा करण |४/६ ) । ६. अनिवृत्तिकरण निर्देश १. अनिवृत्तिकरणका लक्षण 1 = ध. १/१.१.१०/१११-१२० / १८६ एक्कम्मिकालसमए संठाणादीहि जह णिवति । ण णित्रति तह चिय परिणामेहि मिहो जे हु ॥ ११६ ॥ होति अभियहिगोते पंडिसमय जे सिमेकपरिणामा विमलयर झाणवह सिहाहि निकम्मा १२०० अन्तर्मुहूर्त मात्र अनि वृत्तिकरण के काल में से किसी एक समयमें रहनेवाले अनेक जीव जिस प्रकार शरीर के आकार, वर्ग आदि नाह्यरूपसे और ज्ञानोपयोगादि अन्तरंग रूपसे परस्पर भेदको प्राप्त होते हैं, उस प्रकार जिन परिनामोंके द्वारा उनमें भेद नहीं पाया जाता है उनको अनिवृतिकरण परिणामवाले कहते है और उनके प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर अनन्त गुणी विशुद्धिसे बढ़ते हुए एकसे ही ( समान विशुद्धिको लिये हुए ही परिणाम पाये जाते है । तथा वे अत्यन्त निर्मल ध्यानरूप अग्निकी शिखाओंसे कर्मवनको भस्म करनेवाले होते हैं । १११-१२० । (गो. जी./मू./५६-५७/१४६) ( गो ./मू./१९९-६९२/१०६०). (ल. सा. / जी. प्र./३६/०१ 1 ब. २/१.१.१०/१०३०१९ समानसमयावस्थितजीयपरिणामानां निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्ति । अथवा निवृत्तिर्व्यावृत्ति न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयः । = समान समयवर्ती जीवोंके परिणामों की भेद रहित वृद्धिको निवृत्ति कहते हैं अथवा निवृत्ति शब्दका अर्थ व्यावृत्ति भी । अतएव जिन परिणामोंकी निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती ( अर्थात् जो छूटते नहीं ) उन्हे ही अनिवृत्ति कहते हैं । और भी हे० अनिवृधिकरण २. अनिवृत्तिकरणका काल घ. ६/९.१४/२२१/- अभिपट्टीकरणा अंतोसमेत होदि चि तिस्से अद्राए समया रचेव्त्रा । - अनिवृत्तिकरणका काल अन्तमुहूर्तमात्र होता है। इसलिए उसके कालके समयोंकी रचना करना चाहिए। ३. अभिवृत्तिकरण में प्रति समय एक ही परिणाम सम्भव है घ. ६/ १९.१-८/२२९/१ र समर्प पछि एक्केको एक सिमरजपुक्कस्सपरिणामभेदाभावा अनिवृत्तिकरणमें, एक एक समय के प्रति एक-एक ही परिणाम होता परिणाम होदि यहाँ पर अर्थात् Jain Education International १३ ६. अनिवृत्तिकरण निर्देश है; क्योंकि यहाँ एक समय जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंके भेदका अभाव है। (रा.सा./मू./८३९१८ तथा जी. प्र. २६/०९ ) । ४. अनिवृत्तिकरणके परिणामोंकी विशुद्धता वृद्धिक्रम घ. ६/१,६८,४/२२२/११ एदासि ( अनियट्टीकरणस्स) विसोही तिथ्य-मंददाए अप्पाबाहुर्ग उपपदे पढ़मसमय विसोही धोना । विदियसमयविसोही अण तगुणा । तत्तो तदियसमय विसोही अजहण्णुकस्सा अनंतगुणा एवं यव्वं जान अणियट्टीकरणद्वार परिमसमओ ति अब अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी विशुद्धियाँको तीनता मन्दताका अल्पबहुत्व कहते हैं - प्रथम समय सम्बन्धी विशुद्धि सबसे कम है। उससे द्वितीय समयकी विशुद्धि अनन्तगुणित है। उससे तृतीय समयकी शुद्ध अजयग्योत्कृष्ट अनन्तगुपित है। इस प्रकार यह क्रम अनिवृत्तिकरणकाल अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। । ५ नाना जीवों में योगोंकी सदृशताका नियम नहीं है। ध. १/१,१,२७/२२०/५ ण च तेसि सव्वेसि जोगस्स सरिसत्तणे नियमो अस्थि लोगपुरणहियिकेवलीणं व तहा पहिमालय मुस्ताभावादो = अनिवृत्तिकरण के एक समयवर्ती सम्पूर्ण जीवों के योगकी सदृशताका कोई नियम नहीं पाया जाता। जिस प्रकार लोकपूरण समुद्वातमें स्थित केवलियों के योगकी समानताका प्रतिपादक परमागम है उस प्रकार अनिवृत्तिकरणमें योगकी समानताका प्रतिपादक परमागमका अभाव है । ६. नाना जीवोंमें काण्डक घात आदिकी समानता और प्रदेश बन्धकी असमानता घ. १/१,१.२०/२२०/ प अभियहि पदेसबंध एवं समयन्हि - माणसव्वजीवाणं सरिसो तस्स जोगकारणत्तादो । - तदो सरिसपरिगामत्तादो सम्बेसिमणिपट्टीगं समानसमयसंठिया दि भागवादत्त - बंधोसरण गुण सेढि - णिज्जरासंकमणं सरिसत्तणं सिद्धं । परन्तु इस कथन से अनिवृत्तिकरण के एक समय में स्थित सम्पूर्ण जीवोके प्रदेशबन्ध सदृश होता है, ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए; क्योंकि, प्रदेशमन्ध योगके निमित्तसे होता है और वहाँ योगों के सदृश होनेका नियम नहीं है (देखो पहले नं० ५ वाला शीर्षक ) । ...इसलिए समान समय में स्थित सम्पूर्ण अनिवृतिकरण गुणस्थानवाले जीवोंके सदृश परिणाम होनेके कारण स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, बन्धापसरण, गुणश्रेणी निर्जरा और संक्रमण में भी समानता सिद्ध हो जाती है । क्ष. सा. / . /४१२४९३/४६६ बाहरपड मे पढमं ठिदिखंडविसरिसं तु विदियादि । ठिदिखंडयं समाणं सव्वस्स समाणकालम्हि |४१२ | पल्लस्स संखभागं अवरं तु वरं तु संखभागहियं । घादादिमठिदिखंडो सो सम्बस सरिसा हु ॥ ४१३| = अनिवृत्तिकरणका प्रथम समय विषै पहिला स्थिति खण्ड है सो तो विसदृश है, नाना जीवनिकैं समान नाहीं है। बहुरि द्वितीयादि स्थितिखण्ड हैं ते समानकाल वि सर्वजीवनिके समान हैं। अनिवृतिकरणमा जिनको समान काल भया तिनकैं परस्पर द्वितीयादि स्थितिकाण्डक आयामका समान प्रमाण जानना । ४१२ । सो प्रथम स्थिति खण्ड जधन्य तो पत्यका असंख्यातवाँ भाग मात्र है। उत्कृष्ट ताका संख्यातवाँ भाग करि अधिक है। बहुरि अवशेष द्वितीयादिखण्ड सर्व जीवनिके समान हो हैं। अपूर्वकरणका प्रथम समय से लगाय अनिवृत्तिकरण याद प्रथम खण्डका घात न होइ तावत् ऐसे ही संभवे (अर्थात किसीके स्थिति खण्ड जघन्य होइ और किसीके उत्कृष्ट ) बहुरि तिस प्रथम - काण्डकका घात भए पीछे समान समयनिविषै प्राप्त सर्व जीवनिकै स्थिति सत्वको समानता हो है, तातै द्वितीयादि काण्डक आयामकी भी समानता जाननी १४१३ | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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