Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 23
________________ करुणा और स्वाभाविक ऐसी असह्य दुखराशि प्रायोको सता रही है, यह देखकर "अह इन दोन प्राणियो मिध्यादर्शन, अविरति कषाय और अशुभयोगसे जो उत्पन्न किया था; वह कर्म उदयमें आकर इन जीवको दुःख दे रहा है। ये कर्मवश होकर दुःख भोग रहे हैं। इनके दुखसे दुखित होना करुणा है। भ. आ /वि [१८३६/१६५० / ३ दया सर्वप्राणिविषया। =सर्व प्राणियोके ऊपर उनका दुःख देखकर अन्त करण आर्द्रा होना दयाका लक्षण है । ★ अनुकम्पाके भेद व लक्षण दे०] अनुकम्पा । २. करुणा जीवका स्वभाव है ग्रह ध. १२/२-२४८/०६९/१४ करुणार कारण कम्मे करुणेति कि ण करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो । अकरुणाए कारण कम्मं वसव्वं । ण एस दोसो, संजमघादिकम्माणं फलभावेण तिस्से अग्भुवगमादो । प्रश्न- करुणाका कारणभूत कर्म करुणा कर्म है. क्यो नहीं कहा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, करुणा जीवका स्वभाव है, अतएव उसे कर्मजनित माननेमें विरोध आता है। प्रश्न- तो फिर अकरुणाका कारण कर्म कहना चाहिए ! उत्तर - यह कोई दोष नही है, क्योंकि, उसे संयमपाती कमक फलरूपसे स्वीकार किया गया है। २. करुणा धर्मका मूल कुल २४/२मीक्ष्येन दयां चित्तेन पालयेत् सर्वे धर्मा हि भाषन्ते दया मोक्षस्य साधनम् |२| ठीक पद्धतिसे सोच-विचारकर हृदयमें दया धारण करो, और यदि तुम सर्व धर्मोसे इस मारेमें पूछकर देखोगे तो तुम्हें मालूम होगा कि दया ही एकमात्र मुक्तिका साधन है। पं. /ि६/३० मे जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते चिते जीवरा नास्ति तेषां धर्मः कुतो भवेत् । ३अ मूलं धर्म तरोराया बतानां धाम संपदाम् । गुणानां निधिरित्यङ्गिदया कार्या विवेकिभिः ॥ ३८ ॥ - जिन भगवानके उपदेश दयालुतरूप अमृत से परिपूर्ण जिन श्रावकों हृदयमें प्राणिदया आविर्भूत नहीं होती है उनके धर्म कहाँसे हो सकता है |३०|] प्राणिया धर्मरूपी पक्षी है तो मुख्य है. सम्पत्तियोंका स्थान है और गुणोंका भण्डार है। इसलिए उसे विवेकी जनको अवश्य करना चाहिए |३८| ४. करुणा सम्यक्त्वका चिह्न है। का.अ./४१२/पं. जयचन्द "दश लक्षण धर्म दया प्रधान है और दया सम्यक्त्वका चिह्न है । ( और भी देखो सम्यग्दर्शन / I / २ । प्रशम संवेग आदि चिह्न) । ५. परन्तु निश्चयसे करुणा मोहका चिह्न है। प्र.सा./मू./८५ अट्ठे अजधागहण करुणाभावश्च तिर्यमनुजेषु । विषयेषु च प्रसङ्गो मोहस्यैतानि लिङ्गानि ॥८५ = पदार्थ का अयथार्थ और तिर्यच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयोंप्रहण की संगति (इष्ट विषयोंमें प्रीति और अनिष्ट विषयोंमें अपीति ) ये सब मोहके चिह्न है । प्र.सा.// मनुष्येषु प्रेक्षार्हष्वपि कारुण्यमुवाच मोह... कति त्रिभूमिकोऽपि मोही निहन्तव्यः तिर्यग्मनुष्य प्रेक्षायोग्य होनेपर भी उनके प्रति करुणाबुद्धिसे मोहको जानकर, तत्काल उत्पन्न होते भो तीनों प्रकारका मोह ( दे० ऊपर मूलगाथा ) नष्ट कर देने योग्य है । Jain Education International १५ कर्ता प्र सा./ता.वृ./८५ शुद्धात्मोपलक्षणपरमो पेक्षा ममाद्विपरीत करुणाभावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभाव । केषु विषयेषु । तिर्यग्मनुजेषु इति दर्शनमोहचिह्न । = शुद्धात्माकी उपलब्धि है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा संयमसे विपरीत करुणाभाव या दयापरिणाम अथवा व्यवहारसे करुणाका अभाव, किनमेंतिच मनुष्यो मे दर्शनमोहक चित्र है। ― ६. निश्चयसे वैराग्य ही करुणा । - स.म./१०/१०८/१३ कारुणिकत्वं च वैराग्याद् न भिद्यते । ततो युक्तमुक्तम् अहो विरक्त इति स्तुतिकारणोपहासवचनम् करुणा और वैराग्य अम अलग नहीं हैं। इसलिए स्तुतिकारने (दे० स श्लोक नं ० १० ) 'अहो विरक्त" ऐसा कहकर जो उपहास किया है सो ठीक है । तकिया व इति क्रियामें परस्पर विरोध - दे० चेतना / ३ । करोति कर्कराज गुर्जर नरेन्द्र राजा जगतुइके छोटे भाई इन्द्रराज पुत्र था। इसकी सहायतासे ही श. सं. ७५७ (ई. ३५ ) मे अमोघवर्ष प्रथम राष्ट्रकूटोंको जीतकर उनके राष्ट्र देशपर अधिकार किया था। अमोघवर्ष के अनुसार इनका समय ई० ८९४-८७८ आता है। - दे० इतिहास /३/४ कर्कोटक कंटक द्वीपमें स्थित एक पर्वत मनुष्य ४ कर्णइन्द्रिय-०/१ कर्णगोभि - ईश. ७-८ के एक बौद्ध नैयायिक थे। इनने धर्मकीर्ति कृत 'प्रमाणवार्तिक' की स्ववृत्ति नामकी टीका लिखी है। (सि./१०/ महेन्द्रकुमार ) कर्ण ( राजा ) - ( पा. पु / सर्ग / श्लो०) - पाण्डुका पुत्र था । कुँवारी कुन्तीसे उत्पन्न हुआ था। ( ७/२३७-६७) । चम्पा नगरीके राजा भानुके यहाँ पत्ता (७२) महाभारत युद्ध में कौरव के पक्ष लडा ( १६ / ७१ ) । अन्तमें अजुन द्वारा मारा गया । (२० / २६३) । कर्णविधि - Diagonal method (ज. (प्र.१०१) । कर्ण सुवर्णा वर्तमान बनसोगा नामका ग्राम जो पहले बंग ( बंगाल ) देशको राजधानी थी। ( म पु / प्र.४६ / पं. पन्नालाल ) । कर्तव्य का कर्तव्य कर्तव्य०धर्म कर्ता- “यद्यपि लोकमें 'मैं घट, पट आदिका कर्ता हूँ ऐसा ही व्यव हार प्रतित है परन्तु परमार्थ में प्रत्येक पदार्थ परिणमन स्वभावी होने तथा प्रतिक्षण परिणमन करते रहने के कारण वह अपनी पर्यायका ही कर्ता है। इस प्रकारका उपरोक्त भेद कर्ता कर्म भाव विश्वात्मक होने के कारण परमार्थ मे सर्वत्र निषिद्ध है। अभेद कर्ता कर्म भावका विचार ही ज्ञाता द्रष्टाभाव में ग्राह्य है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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