Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ करण २. दशकरण निर्देश करण सामान्य निर्देश करणका अर्थ इन्द्रिय व परिणाम । २ इन्द्रिय व परिणामोको करण करने हेतु। दशकरण निर्देश दशकरणों के नाम निर्देश। कम प्रकृतियोंमें यथासम्भव १० करण अधिकार निदेश। गुणस्थानों में १० करण सामान्य व विशेषका अधिकार निर्देश । | अपूर्वकरण व अयःप्रवृत्तकरणमें कथचित् समानता |व असमानता। ६ । अनिवृत्तिकरण निर्देश अनिवृत्तिकरणका लक्षण । अनिवृत्तिकरणका काल । अनिवृत्ति करणमें प्रतिसमय एक ही परिणाम मम्भव है। परिणामोंकी विशुद्धतामें वृद्धिक्रम । नाना जीवों में योगोंकी सदृशताका नियम नहीं है। नाना जीवों में काण्डक घात आदि तो समान होते है, पर प्रदेशबन्ध असमान ।। अनिवृत्तिकरण के चार आवश्यक। अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरणमें अन्तर । परिणामोंकी ममानताका नियम समान समयवर्ती जीवों में ही है । यह कैसे जाना । गुणश्रेणी आदि अनेक कार्योंका कारण होते हुए भी परिणामों में अनेकता क्यों नही। त्रिकरण निर्देश त्रिकरण नाम निर्देश। सम्यक्त्व व चारित्र प्राप्ति विधिमें तीनों करण अवश्य होते है। मोहनीयके उपशम क्षय व क्षयोपशम विधि में त्रिकरणोंका स्थान -दे० वह वह नाम अनन्तानुबन्धीकी रिसयोजनामें त्रिकरणों का स्थान -दे० विसंयोजना त्रिकरणका माहात्म्य। ४ तीनों करणोंके कालमें परस्पर तरतमता। तीनों करणों की परिणामविशुद्वियों में तरतमता। तीनों करणों का कार्य भिन्न-भिन्न कैसे है। अधःप्रवृत्तकरण निर्देश अधःप्रवृत्तकरणका लक्षण । अधारवृत्तकरणका काल । प्रति समय सम्भव परिणामों की संख्या सदृष्टि व यत्र।। परिणाम संख्या में अंकुश व लांगल रचना। परिणामोंकी विशुद्धताके भविभाग प्रतिच्छेद, सदृष्टि व यंत्र। परिणामोंकी विशुद्धताका अल्पवदुत्व व उसकी सर्पवत् चाल अध:प्रवृत्तकरणके चार आवश्यक । सम्यक्त्व प्राप्तिमे पहले भी सभी जीवोंके परिणाम अधःकरण रूप ही होते है। १. करणसामान्य निर्देश १. करणका लक्षण परिणाम व इन्द्रियरा. वा/६/१२/१/५२३/२६ करणं चक्षुरादि । चक्षु आदि इन्द्रि प्रोको करण कहते है। ध, १/१.१.१६/१८०/१ करणा परिणामा' । = करण शब्दका अथ परिणाम है। २. इन्द्रियों व परिणामोंको करण संज्ञा देने में हेतुध. ६/१,१-८/३/२१/५ कचं परिणामाणं करणं सण्णा। ण एस दोसो, असि-वामीणं व सहायतमभावविवक्रवाए परिणामाणं करणतबलंभादो।- प्रश्न-परिणामोंकी 'करण' यह संज्ञा कैसे हुई 1 उत्तरयह कोई दोष नहीं; क्योंकि, असि ( तलवार ) और वासि ( वसूला) के समान साधकतम भावकी विवक्षामें परिणामोके करणपना पाया जाता है। भ. आ./वि./२०/७१/४ क्रियन्ते रूपादिगोचरा विज्ञप्तय एभिरिति करणानि इन्द्रियाण्युच्यन्ते कचित्करणशब्देन । =क्योंकि इनके द्वारा रूपादि पदार्थोंको ग्रहण करनेवाले ज्ञान किये जाते है इसलिए इन्द्रियोको करण कहते हैं। अपूर्वकरण निर्देश अपूर्वकरणका लक्षण । अपूर्वकरणका काल प्रतिसमय सम्भव परिणामोंकी सख्या । परिणामोंकी विशुद्धतामें वृद्धिकम अपूर्वकरणके परिणामों की सदृष्टि व यत्र । | अपूर्वकरणके चार पावश्यक । २. दशकरण निर्देश १. दशकरणों के नाम निर्देश गो.क./मू /४३७/५६१ बंधुक्कट्टणकरणं सकममोकट टुदीरणा सत्तं । उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी।४३७१-बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा. सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति और नि काचना ये दश करण प्रकृति प्रकृति प्रति संभवे हैं। २. कर्मप्रकृतियोंमें यथासम्भव दश करण अधिकार निर्देश गो क./म./४४१,४४४/५६३,५६५ संकमणाकराणा णवकरणा होति सब आऊणं । सेसाणं दसकरणा अपव्यकरणोक्ति दसकरणा ॥४४॥ बंधु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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