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अष्ट मूलगुण
रका विधान जरूर किया है। साथ ही, 'वृद्धसंप्रदाय' रूपसे कुछ प्राकृत गद्य भी उद्धृत किया है जिसमें उक्त व्रतीके मद्य-मांसादिक और पंचोदुम्बरादिकके त्यागकी सूचना पाई जाती है। परंतु 'वृद्धसंप्रदाय से अभिप्राय कौनसे संप्रदाय-विशेषसे है यह कुछ मालूम नहीं हुआ। श्रावकधर्मके प्रतिपादन-विषयमें, श्वेताम्बरसम्प्रदायका सबसे प्राचीन ग्रंथ ' उवासगदसाओ' (उपासक-दशा) सूत्र है, जिसे ' उपासकाध्ययन' तथा द्वादशांगवाणीका 'सप्तम अंग' भी कहते हैं और जो महावीर भगवानके साक्षात् शिष्य 'सुधर्मास्वामी' गणधरका बनाया हुआ कहा जाता है। इस ग्रंथमें भी, उक्त गुणवतका कथन करते हुए, मद्य-मांसादिकके त्यागका स्पष्ट रूपसे कोई विधान नहीं किया गया। श्रावकधर्म-विषयक उनके इस सर्वप्रधान ग्रन्थमें, कथाओंको छोड़कर,
श्रावकीय बारह व्रतोंके प्रायः अतीचारोंका ही वर्णन पाया जाता ' है, व्रतोंके स्वरूपादिकका और कुछ भी विशेष वर्णन नहीं है।
दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिए कि इस ग्रंथमें श्रावकधर्मका पूरा विधिविधान नहीं है । इसीसे शायद 'श्रावकप्रज्ञप्ति' के टीकाकार श्रीहरिभद्रसूरिने, श्रावकोंके लिये निरवद्य आहारादिकका विधान करते हुए, यह सूचित किया है कि 'सूत्रमें (उपासक दशामें) देशविरतिके सम्बंधमें नियमित रूपसे 'इदमेव इदमेव' ऐसा कोई कथन नहीं है, क्योंकि वहाँ सिर्फ अतिचारोंका उल्लेख किया गया है। इस लिये देशविरतिकी विधि विचित्र है और उसे अपनी बुद्धिसे पूरा करना चाहिए।' हरिभद्रसूरिके वे वाक्य इस प्रकार हैं:
"विचित्रत्वाच देशविरतेचित्रोत्रापवादः इत्यत एवेदमेवेदमेवेति वा सूत्रे न नियमितमतिचाराभिधानाच विचित्रस्तद्विधिः स्वधियावसेय इति ।"