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जैनाचार्योंका शासनभेद होना ही इष्ट न हो। कुछ भी हो, उसके मालूम होनेकी जरूरत है। और उससे आचार्योंका शासनभेद और भी अधिकताके साथ व्यक्त होगा।
गुणव्रतोंके सम्बन्धमें भी वसुनन्दीका शासन समन्तभद्रादिके शासनसे विभिन्न है उन्होंने दिग्विरति, देशविरति और संभवतः अनर्थदंडविरतिको गुणवत करार दिया है । अनर्थदंडके साथमें 'संभवतः' शब्द इस वजहसे लगाया गया है कि उन्होंने अपने प्रन्थमें उसका नाम नहीं दिया। और लक्षण अथवा स्वरूप जो दिया है वह इस प्रकार है:
अयदंडपासविकय कूडतुलामाणकूरसत्ताणं ।
जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तिदियं ॥ इसमें लोहेके दंड-पाशको न बेचने और झूठी तराजू, झूठे बाट. तथा क्रूर जन्तुओंके संग्रह न करनेको तीसरा गुणव्रत बतलाया गया है। अनर्थदंडका यह लक्षण अथवा स्वरूप समन्तभद्रादिकके पंचभेदात्मक अनर्थदंडके लक्षणं तथा स्वरूपसे बिलकुल विलक्षण मालूम होता है। इसी तरह देशविरतिका लक्षण भी आपका औरोंसे विभिन्न पाया जाता. है। आपने उस देशमें गमनके त्यागको देशविरति बतलाया है जहाँ व्रतभंगका कोई कारण मौजूद हो * । और इस लिये जहाँ व्रतभंगका कोई कारण नहीं उन देशोंमें गमनका त्याग आपके उक्त व्रतकी सीमासे बाहर समझना चाहिये । दूसरे आचार्योंके मतानुसार देशावकाशिक व्रतके लिये ऐसा कोई नियम नहीं है। वे कुछ कालके लिये दिग्नतद्वारा ग्रहण किये हुए क्षेत्रके एक खास देशमें स्थितिका संकल्प करके * वयभंगकारणं होई जम्मि देसाम्मि तत्थ णियमेण ।
कीरह गमणणियत्तीतं जाण गुणव्वयं विदियं ॥ २१४ ॥