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जैनाचार्योंका शासनभेद जावे दु अप्पणो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावे दु पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२६ ॥ इरियागोयरसुमिणादि सव्वमाचरदु मा व आचरदु । पुरिमचरिमा दु सव्वे सव्वे णियमा पडिकमदि ॥१२७ ॥
अर्थात्-पहले और अन्तिम तीर्थंकरका धर्म, अपराधके होने और न होनेकी अपेक्षा न करके, प्रतिक्रमण-सहित प्रवर्तता है। पर मध्यके बाईस तीर्थंकरोंका धर्म अपराधके होनेपर ही प्रतिक्रमणका विधान करता है। क्योंकि उनके समयमें अपराधकी बहुलता नहीं होती । मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके समयमें जिस व्रतमें अपने या दूसरोंके अतीचार लगता है उसी व्रतसम्बन्धी अतीचारके विषयमें प्रतिक्रमण किया जाता है। विपरीत इसके, आदि और अन्तके तीर्थंकरों (ऋषभदेव और महावीर) के शिष्य ईर्या, गोचरी और स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए समस्त अतीचारोंका आचरण करो अथवा मत करो उन्हें समस्त प्रतिक्रमण-दण्डकोंका उच्चारण करना होता है। आदि और अन्तके दोनों तीर्थंकरोंके शिष्योंको क्यों समस्त प्रतिक्रमण-दण्डकोंका उच्चारण करना होता है और क्यों मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शिष्य वैसा आचरण नहीं करते ? इसके उत्तरमें आचार्यमहोदय लिखते हैं:
मज्झिमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य । तम्हा हु जमाचरंति तं गरहंता विसुझंति ॥ १२८॥
पुरिमचरमा दु जम्हा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य । ...तो सव्वपडिक्कमणं अंधलयघोडयदिहतो ॥ १२९ ॥
अर्थात-मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके शिष्य विस्मरणशीलतारहित दृढबुद्धि, स्थिरचित्त और मूढतारहित परीक्षापूर्वक कार्य करनेवाले होते हैं । इस