Book Title: Jainacharyo ka Shasan bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 73
________________ जैनाचार्योंका शासनभेद आचक्खि, विभजिदं विण्णादुं चावि सुहदरं होदि । एदेण कारणेण दु महव्वदा पंच पण्णत्ता ॥३३॥ आदीए दुन्विसोधणे णिहणे तह सुडु दुरणुपालेया । पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति ॥३४॥ टीका-"......यस्मादन्यस्मै प्रतिपादयितुं स्वेच्छानुष्ठातुं विभक्तुं विज्ञातुं चापि भवति सुखतरं सामायिकं तेन कारणेन महाव्रतानि पंच प्रज्ञप्तानीति ॥३३॥" "आदितीर्थे शिष्या दुःखेन शोध्यन्ते सुष्टु ऋजुस्वभावा यतः। तथा च पश्चिमतीर्थे शिष्या दुःखेन प्रतिपाल्यन्ते सुष्ठु वक्रस्वभावा यतः । पूर्वकालशिष्याः पश्चिमकालशिष्याश्च अपि स्फुट कल्पं योग्यं अकल्पं अयोग्यं न जानन्ति यतस्तत आदौ निधने च छेदोपस्थापनमुपदिशत इति ॥ ३४ ॥" ___ अर्थात-पांच महाव्रतों (छेदोपस्थापना)का कथन इस वजहसे किया गया है कि इनके द्वारा सामायिकका दूसरोंको उपदेश देना, स्वयं अनुष्ठान करना, पृथक पृथक रूपसे भावनामें लाना और सविशेषरूपसे समझना सुगम हो जाता है । आदिम तीर्थमें शिष्य मुश्किलसे शुद्ध किये जाते हैं; क्योंकि वे अतिशय सरलस्वभाव होते हैं। और अन्तिम तीर्थमें शिष्यजन कठिनतासे निर्वाह करते हैं; क्योंकि वे अतिशय वक्रस्वभाव होते हैं। साथ ही, इन दोनों समयोंके शिष्य स्पष्टरूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते हैं । इसलिये आदि और अन्तके तीर्थमें इस छेदोपस्थापनाके उपदेशकी ज़रूरत पैदा हुई है। यहाँपर यह भी प्रकट कर देना जरूरी है कि छेदोपस्थापनामें हिंसादिकके भेदसे समस्त सावद्यकर्मका त्याग किया जाता . इससे पहले, टीका, गाथाका शब्दार्थ मात्र दिया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87