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जैनाचार्योंका शासनभेद सूत्रकी उक्त दोनों टीकाओंकी तरह, शीलवत भी नहीं लिखा, बल्कि सात शिक्षाव्रत बतलाया है । यथाः
“समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जाहि।"
इसके सिवाय, 'अतिथिसंविभाग' को 'यथा संविभाग' व्रत प्रतिपादन किया है। इससे ऐसा मालूम होता है कि श्वेताम्बर संप्रदायमें पहले इन व्रतोंको सात शिक्षाव्रत माना जाता था, बादमें दिगम्बर सम्प्रदाय की तरह इनके गुणव्रत और शिक्षाव्रत ऐसे दो विभाग किये गये हैं। साथ ही, इन्हें ' शील' संज्ञा भी दी गई है। इसी तरह यथासंविभागके स्थानमें बादको अतिथिसंविभागका परिवर्तन किया गया है। संभव है कि इस बादके संपूर्ण परिवर्तनको कुछ आचार्योंने स्वीकार किया हो और कुछने स्वीकार न किया हो। और यह भी संभव है कि. दूसरे आगमग्रंथोंमें पहले हीसे गुणव्रत और शिक्षाव्रतके व्यपदेशको लिये. हुए इन व्रतोंका शीलव्रतरूपसे विधान हो और चौथे शिक्षाव्रतका नाम अतिथिसंविभाग ही दिया हो। परंतु इस पिछली बातकी संभावना बहुत ही कम-प्रायः नहींके बराबर-जान पडती है; क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रौढ विद्वान हरिभद्रसूरिने, 'श्रावकप्रज्ञप्ति' की टीकामें 'विचित्रत्वाच देशविरतेः' नामका जो वाक्य दिया है, और जो 'अष्ट मूलगुण' नामक प्रकरणमें उद्धृत किया जा चुका है, उससे यह साफ ध्वनित होता है कि 'उपासकदशा से भिन्न श्वेताम्बरोंके दूसरे आगमग्रंथोंमें देशविरति (श्रावक) की कोई विशेष विधि नहीं है। इसीसे हरिभद्रसूरि देशविरतिकी विधिको 'विचित्र' तथा 'अनियमित' बतलाते हैं और उसे अपनी बुद्धिसे पूरा करनेकी अनुमति देते हैं । इत्यलम् ।
सरसावा जि० सहारनपुर । ता० ११ जून, सन १९२० जुगलकिशोर मुख्तार