Book Title: Jainacharyo ka Shasan bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 68
________________ गुणवत और शिक्षावत विभिन्न शासनोंको आचार्योंका अपना अपना मत समझना चाहिये। मेरी रायमें ये सब शासन भी, जैसा कि पहले प्रकट किया जा चुका है, पापरोगकी शांतिके नुसखे ( Prescriptions) हैं -~ओषधिकल्प हैं जिन्हें आचार्योंने अपने अपने देशों तथा समयोंके शिष्योंकी प्रकृति और योग्यता आदिके अनुसार तय्यार किया था । और इस लिये सर्व देशों, सर्व समयों और सर्व प्रकारकी प्रकृतिके व्यक्तियोंके लिये अमुक एक ही नुसखा उपयोगी होगा, ऐसा हठ करनेकी ज़रूरत नहीं है । जिस समय और जिस प्रकारकी प्रकृति आदिके व्यक्तियों के लिये जैसे ओषधिकल्पोंकी जरूरत होती है, बुद्धिमान वैद्य, उस समय और उस प्रकारकी प्रकृति आदिके व्यक्तियों के लिये वैसे ही ओषधिकल्पोंका प्रयोग किया करते हैं। अनेक नये नये ओषधिकल्प गढ़े जाते हैं, पुरानोंमें फेरफार किया जाता है और ऐसा करनेमें कुछ भी आपत्ति नहीं होती, यदि वे सब रोगशांतिके विरुद्ध न हों। इसी तरहपर देशकालानुसार किये हुए आचार्योंके उपर्युक्त भिन्न शासनोंमें भी प्रायः कोई आपत्ति नहीं की जा सकती। क्योंकि वे सब जैनसिद्धान्तोंके अविरुद्ध हैं। हाँ, आपेक्षिक दृष्टि से उन्हें प्रशस्त अप्रशस्त, सुगम दुर्गम, अल्पविषयक बहुविषयक, अल्पफलसाधक बहुफलसाधक इत्यादि जरूर कहा जा सकता है, और इस प्रकारका भेद आचार्योंकी योग्यता और उनके तत्तत्कालीन विचारों पर निर्भर है । अस्तु । इसी सिद्धान्ताविरोधकी दृष्टि से यदि आज कोई महात्मा वर्तमान देशकालकी परिस्थितियों को ध्यानमें रखकर उपर्युक्त शीलव्रतोंमें भी कुछ फेरफार करना चाहे और उदाहरणके तौरपर १ क्षेत्र (दिग्देश )

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