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जैनाचार्योंका शासनभेद
छागई है कि उन सबके चक्कर में पड़कर उन्हें धर्मकर्मकी प्राय: कुछ भी नहीं सूझती । और इसलिये धर्मकर्मका सब विधि विधान पुस्तकोंमें ही रक्खा रह जाता है— उन्हें अपनी कृत्रिम आवश्यकताओंको पूरा करने से ही फुर्सत नहीं मिलती । इन सब आपत्तियों से बचने के लिये 'स्वदेशवस्तुव्यवहार' नामका व्रत एक अमोघ शास्त्रका काम देगा । ऐसे महान् उपयोगी व्रतका विधान कभी महावीर भगवानके शासनके विरुद्ध नहीं हो सकता और न वह जैनसिद्धान्तोंके ही विरुद्ध कहा जा सकता है । अस्तु ।
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यहाँ, श्वेताम्बर आचार्योंका दृष्टिसे, मैं सिर्फ इतना और बतलाना चाहता हूँ कि उन्होंने रात्रिभोजनविरतिको छठा अणुव्रत तो नहीं माना, परन्तु साधुके २७ मूलगुणोंमें उसे पंचमहाव्रतों के बाद छठा व्रत जरूर माना है । श्रावकोंके लिये श्रीहेमचन्द्राचार्य ने रात्रिभोजनकें त्यागका विधान ' भोगोपभोगपरिमाण ' नामके दूसरे गुणव्रतमें किया है । परन्तु श्रावकप्रज्ञाप्ति के कर्ता आचार्यका उक्त गुणव्रत में वैसा कोई विधान नहीं है | उसके टीकाकार श्रीहरिभद्रसूरि भी वहाँ रात्रिभोजनके त्यागका कोई उल्लेख नहीं करते । उन्होंने ' वृद्धसम्प्रदाय रूपसे जो प्राकृत गद्य अपनी टीकामें उद्धृत किया है उसमें भी रात्रि - भोजनके त्यागकी कोई विधि नहीं है । श्वेताम्बरसम्प्रदायका मुख्य ग्रन्थ उपासकदशांगसूत्र भी इस विषयमें मौन है— वह उक्त गुणव्रतका वर्णन करते हुए रात्रिभोजनके त्यागका कुछ भी उल्लेख नहीं करता । इन सब बातों से ऐसा मालूम होता है कि उनके यहाँ ' भोगोपभोगपरिमाण' नामके गुणव्रत में रात्रिभोजनके त्यागका कोई खास नियम नहीं है । अन्यथा, श्रावकप्रज्ञप्तिके कर्ता या कमसे कम उसके टीकाकार उसका वहाँ उल्लेख ज़रूर करते । सम्भव है कि इस विषय में उक्त सम्प्रदाय के