Book Title: Jainacharyo ka Shasan bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 62
________________ गुणवत और शिक्षावत ५५. प्रतिपादन किया है। इसके सिवाय, आपने सामायिक और प्रोषधोपवास नामके दो व्रतोंको, जिन्हें उपर्युक्त सभी आचार्योंने शिक्षात्रतों में रक्खा है, इन व्रतोंकी पंक्तिमेंसे ही कतई निकाल डाला है । शायद आपको यह खयाल हुआ हो कि, जब 'सामायिक' और 'प्रोषधोपवास' नामकी दो प्रतिमाएँ ही अलग हैं तब व्रतिक प्रतिमामें इन दोनों व्रतों के रखनेकी क्या जरूरत है और इसी लिये आपको वहाँसे इन व्रतोंके निकालने की जरूरत पड़ी हो, अथवा इस निकालनेकी कोई दूसरी ही वजह हो । कुछ भी हो, यहाँ मैं, इस विषय में, कुछ विशेष विचार उपस्थित करनेकी जरूरत नहीं समझता । परन्तु इतना जरूर कहूँगा कि बारह व्रतों में व्रतिक प्रतिमा में सामायिक और प्रोषधोपवास शीलरूप से निर्दिष्ट हैं और अपने अपने नामकी प्रतिमाओं में वे व्रतरूपसे प्रतिपादित हुए हैं * । 'शील' का लक्षण अकलंकदेव और विद्यानन्दने, अपने अपने वार्तिकोंमें ' व्रतपरिरक्षण' किया है। पूज्यपाद भी ' व्रतपरिरक्षणार्थ शीलं ' ऐसा लिखते हैं । जिस प्रकार परिधियाँ नगरकी रक्षा करती हैं उसी प्रकार 'शील' व्रतोंकी पालना करते हैं, ऐसा श्रीअमृतचन्द्र आचार्यका कहना है x । श्वेताम्बराचार्य श्री सिद्धसेनगणि और यशोभद्रजी भी अणुव्रतोंकी दृढ़ता के लिये शीलवतों का उपदेश बतलाते हैं । अतः अहिंसादिक व्रतोंकी रक्षा, * यत्प्राकू सामायिकं शीलं तद्वतं प्रतिमावतः । यथा तथा प्रोषधोपवासोऽपीत्यत्र युक्तिवाक् ॥ - सागारधर्मामृते, आशाधरः । x परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । - पुरुषार्थसिद्धयुपायः । * प्रतिपन्नस्याणुव्रतस्यागारिणस्तेषामेवाणुव्रतानां दार्यापादनाय शीलोपदेशः । ||---तत्त्वार्थ सूत्रटीका ।

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