Book Title: Jainacharyo ka Shasan bhed
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 60
________________ गुणव्रत और शिक्षाबत इस तरह उनके इस व्रतका क्रम तथा विषय समन्तभद्रके क्रम तथा विषयसे कुछ भिन्न है और इस भिन्नताके कारण दूसरे शिक्षाव्रतोंके क्रममें भी भिन्नता आ गई है-उनके नम्बर बदल गये हैं । इसके सिवाय, स्वामिकार्तिकेयने 'वैय्यावृत्य' के स्थानमें 'दान' का ही विधान किया है * । इन सब विभिन्नताओंके सिवाय, अन्य प्रकारसे उनका शासन, इस विषयमें, समन्तभद्रके शासनसे प्रायः मिलता जुलता है। और इस लिये यह कहनेमें कोई संकोच नहीं हो सकता कि स्वामिकार्तिकेयका शासन कुन्दकुन्द, उमास्वाति, पूज्यपाद, विद्यानन्द, सोमदेव, अमितगति और कुछ समन्तभद्रके शासनसे भी भिन्न है। (५) श्रीजिनसेनाचार्य, 'आदिपुराण' के १०वें पर्वमें, लिखते हैं: दिग्देशानर्थदंडेभ्यो विरतिः स्याद्गणव्रतम् । भोगोपभोगसंख्यानमप्याहुस्तद्गुणवतम् ॥ ६५ ॥ समतां प्रोषधविधि तथैवातिथिसंग्रहम् । मरणान्ते च संन्यासं प्राहुः शिक्षावतान्यपि ॥६६॥ अर्थात-दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंडविरति, ये (तीन) गुणवत हैं; भोगोपभोगपरिमाणको भी गुणव्रत कहते हैं। समता ( सामायिक), प्रोषधविधि, अतिथिसंग्रह (अतिथिपूजन ) और मरणके संनिकट होने पर संन्यास, इन (चारों) को शिक्षाव्रत कहते हैं। इससे मालूम होता है कि श्रीजिनसेनाचार्यका मत, इस विषयमें, समन्तभद्रके मतसे बहुत कुछ भिन्न है। उन्होंने देशविरतिको शिक्षाव्रतोंमें न रख कर उमास्वाति तथा पूज्यपादादिके सदृश उसे गुणव्रतोंमें * “दाणं जो देदि सयं णवदाणविहीहिं संजुत्तो॥ सिक्खावयं च तिदियं तस्स हवे......॥

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