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जैनाचार्योंका शासनभेद होना चाहिये था' उत्तरमें बतलाया है कि 'इस व्रतका अहिंसाव्रतकी आलोकितपानभोजन नामको भावनामें अंतर्भाव है' इसलिये यहाँ पृथक रूपसे कहने और गिननेकी जरूरत नहीं हुई। और इस तरहपर उक्त प्रश्नके उत्तरकी भरपाई करके सूत्रकी अनुपपत्ति अथवा त्रुटिका परिहार किया है । यद्यपि इस कथनसे आचार्यमहोदयका छठे अणुव्रतके विषयमें कोई विरुद्ध मत मालूम नहीं होता बल्कि कथनशैलीसे उनकी इस विषयमें प्रायः अनुकूलता ही पाई जाती है तो भी प्रायः मूल ग्रंथके अनुरोधादिसे उस समय उन्होंने उक्त प्रकारका उत्तर देना ही उचित समझा ऐसा जान पड़ता है । अकलंकदेवने भी, अपने राजवार्तिकमें पूज्यपादके वाक्योंका प्रायः अनुसरण और उद्धरण करते हुए, रात्रिभोजनविरतिको छठा अणुव्रत प्रकट किया है (तदपिषष्ठमणुव्रतं)
और उसके विषयमें वे ही विकल्प उठाकर उसे आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें अन्तर्भूत किया है * । साथ ही, आलोकितपानभोजनमें प्रदीपादिके विकल्पोंको उठाकर और नानारंभदोषादिकके द्वारा उनका समाधान करके कुछ विशेष कथन भी किया है। परन्तु वस्तुतः रात्रिभोजनविरति नामके छठे अणुव्रतका आलोकितपानभोजन नामकी भावनामें अन्तर्भाव होता है या नहीं, यह बात अभी विचारणीय है। और इसके लिये सबसे पहले हमें अहिंसाणुव्रतका स्वरूप देखना चाहिये । अर्थात् , यह मालूम करना चाहिये कि अहिंसाणुव्रतके धारकके वास्ते कितनी और किसप्रकारकी हिंसाके त्यागका विधान किया गया है। यदि अहिंसा अणुश्तके स्वरूपमेंअहिंसा महाव्रतके स्वरूपमें नहीं-रात्रिभोजनका त्याग नियमसे
* यथाः-स्यान्मतमिह रात्रिभोजनविरत्युपसंख्यानं कर्तव्यं तदपि षष्ठमणुव्रतमिति । तन्न । किं कारणं भावनान्तर्भावात् ।
-राजवार्तिकम् ।