Book Title: Jain Vidya evam Prakrit Author(s): Gokulchandra Jain Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi View full book textPage 7
________________ (आ) अपने अधिनियम की धारा ७ के द्वारा "संस्कृत, पालि तथा प्राकृतविद्या के शिक्षण की व्यवस्था करने तथा अनुसन्धान कार्यों और ज्ञान की अभिवृद्धि एवं प्रसार की व्यवस्था करने के लिए प्रतिश्रुत है। विश्वविद्यालय के इस गरिमामय व्यापक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मैंने अपने प्रारम्भिक वक्तव्य में कामना की थी कि "प्राच्यविद्या के ऐतिहासिक केन्द्र काशी के इस विश्वविद्यालय में आयोजित देश के विद्वान् मनीषियों की यह संगीति भारतीय संस्कृति के सामासिक स्वरूप का परिचय कराने की दिशा में सारे भारत की मनीषा का मार्गदर्शन करे।" परिसंवाद माला का प्रकाशन ऐसे आयोजनों की निष्पत्ति को जन-जन तक पहुंचाने का एक प्रशस्त उपक्रम है। इस भाग में १९८१ की संगोष्ठी के चुने हुए निबन्ध प्रस्तुत हैं। विगत दशकों में जैनविद्या और प्राकृत के अध्ययन अनुशीलन की ओर विद्वानों तया नयी पीढ़ी का ध्यान विशेष रूपसे आकृष्ट हुआ है। यह अप्रत्याशित और अकारण नहीं है। इस आकर्षण का रोचक इतिहास है। इसके तर्कसंगत कारण हैं । यहाँ उनकी विस्तृत चर्चा का अवसर नहीं है, तथापि कतिपय बिन्दुओं की ओर हमारा ध्यान जाना आवश्यक है। - जैन श्रमणधारा का अवदान परिमाण में विशाल और इयत्ता में महनीय है। देश और काल की दृष्टि से यह व्यापक क्षेत्र तथा दीर्घकालावधि में व्याप्त है। उन्नीसवीं और बीसवीं शती में देश और विदेश के प्रबुद्ध विद्वानों के अनुसंधान कार्यों से अनेक नये पक्ष उद्घाटित हुए हैं। परिणाम स्वरूप यह अनुभव किया जाने लगा है कि जैन श्रमणधारा के इस अवदान का मूल्यांकन धर्म, दर्शन और साहित्य की परिसीमाओं में बंधकर नहीं किया जा सकता । नहीं किया जाना चाहिए। मानविकी, समाजविज्ञान तथा विज्ञान की विभिन्न शाखा-प्रशाखाओं के सन्दर्भ में इसका अध्ययन अपेक्षित है। यह भी भ्रम टूटा है कि जैनविद्या और प्राकृतों का अध्ययन किसी सम्प्रदाय विशेष तक सीमित है। इसी व्यापक अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए इधर के दशकों में भारतीय भाषाओं में 'जनविद्या' और अंग्रेजी में जैनालॉजी शब्द का प्रयोग आरभ्भ हुआ। जैनविद्या और प्राकृत का अध्ययन भारतीय विद्या की एक महत्त्वपूर्ण शाखा के रूप में किया जाये, इसके लिए गत दो शताब्दियों से प्रयत्न किये जाते रहे हैं। इस दृष्टि से पाश्चात्य विद्वानों-विशेषकर जर्मन विद्वानों का कार्य विशेष महत्त्वपूर्ण है। डॉ० हरमन जैकोबी ने जैन श्रमण परम्परा के जो पक्ष उद्घाटित किये, उनसे परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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