Book Title: Jain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 15
________________ ( ४ ) और द्रव्यतीर्थ भी कह सकते हैं । वस्तुतः नदी, सरोवर आदि तो जड़ या द्रव्य तीर्थ हैं, जबकि श्रुतविहित मार्ग पर चलने वाला संघ भावतीर्थ है और वही वास्तविक तीर्थ है । उसमें साधुजन पार कराने वाले हैं, ज्ञानादि रत्नत्रय नौका-रूप तैरने के साधन हैं और संसार-समुद्र ही पार करने की वस्तु है । जिन ज्ञान दर्शन- चारित्र आदि द्वारा अज्ञानादि सांसारिक भावों से पार हुआ जाता है, वे ही भावतीर्थ हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मल हैं, इनको जो निश्चय ही दूर करता है वही वास्तव में तीर्थ है ।" जिनके द्वारा क्रोधादि की अग्नि को शान्त किया जाता है वही संघ वस्तुतः तीर्थ है । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन जैन परम्परा में आत्मशुद्धि की साधना और जिस संघ में स्थित होकर यह साधना की जा सकती है, वह संघ ही वास्तविक तीर्थ माना गया है । 'तीर्थ' के चार प्रकार विशेषावश्यकभाष्य में चार प्रकार के तीर्थों का उल्लेख है, नामतीर्थ, स्थापनातीर्थ, द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ । जिन्हें तीर्थ नाम दिया गया है वे नामतीर्थ हैं । वे विशेष स्थल जिन्हें तीर्थ मान लिया गया है, ये स्थापनातीर्थ हैं । अन्य परम्पराओं में पवित्र माने गये नदी,. सरोवर आदि अथवा जिनेन्द्रदेव के जन्म, दीक्षा, कैवल्य प्राप्ति एवं निर्वाण के स्थल द्रव्यतीर्थ हैं, जबकि मोक्षमार्ग और उसकी साधना करने वाला चतुर्विधसंघ भावतीर्थ है | इस प्रकार जैनधर्म में सर्वप्रथम तो जिनोपदिष्ट धर्म, उस धर्म का पालन करने वाले साधु १. जं माण- दंसण-चरितभावओ तव्विवक्खभावाओ । भव भावओ य तारेइ तेणं तं भावओ तित्थं ॥ तह कोह- लोह - कम्ममयदाह- तरहा- मलावण्यणा । एगंतेणच्चतं च कुणइ य सुद्धि भवोघाओ || दाहोसमाइसु वा जं तिसु थियमहव दंसगाई | तो तित्थं संघो च्चिय उभयं व विसे सण विसेस्सं ॥ कोहग्गिदाहसमणादओ व ते चैव जस्स तिष्णत्था । होइ तियत्थं तित्थं तमत्थवद्दो फलत्थोऽयं ॥ विशेषावश्यक भाष्य, १०३३-१०३६ नामं ठवणा- तित्थं, दव्वतित्थं चेव भावतित्थं च । Jain Education International अभिधान राजेन्द्र कोष, चतुर्थ भाग, पृ० २२४२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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