Book Title: Jain Tirthon ka Aetihasik Adhyayana Author(s): Shivprasad Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 14
________________ ( ३ ) भाष्य में न केवल लौकिक तीर्थस्थलों (द्रव्यतीर्थ) की अपेक्षा आध्या त्मिक तीर्थ (भावतीर्थ ) का महत्त्व बताया गया है, अपितु नदियोंके जल में स्नान और उसका पान अथवा उनमें अवगाहन मात्र से संसार से मुक्ति मान लेने की धारणा का खण्डन भी किया गया है । भाष्यकार कहता है कि "दाह की शान्ति, तृषा का नाश इत्यादि कारणों से गंगा आदि के जल को शरीर के लिए उपकारी होने से तीर्थ मानते हो तो अन्य खाद्य, पेय एवं शरीर शुद्धि करने वाले द्रव्य इत्यादि भी शरीर के उपकारी होने के कारण तीर्थ माने जायेंगे किन्तु इन्हें कोई भी तीर्थरूप में स्वीकार नहीं करता है" । " वास्तव में तो तीर्थ वह है जो हमारे आत्मा के मल को धोकर हमें संसार सागर से पार कराता है । जैन परम्परा की तीर्थ की यह अध्यात्मपरक व्याख्या हमें वैदिक परम्परा में भी उपलब्ध होती है । उसमें कहा गया है - सत्य तीर्थ है, क्षमा और इन्द्रिय-निग्रह भी तीर्थ है । समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव, चित्त की सरलता, दान, सन्तोष, ब्रह्मचर्य का पालन, प्रियवचन, ज्ञान, धैर्य और पुण्य कर्म - ये सभी तीर्थ हैं । द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ जैनों ने तीर्थ के जंगमतीर्थ और स्थावरतीर्थ ऐसे दो विभाग भी किये हैं । इन्हें हम क्रमशः चेतनतीर्थ और जड़तीर्थ अथवा भावतीर्थ १. २. ३. देहोवगारि वा तेण तित्थमिह दाहनासणाईहि । महु-मज्ज- मंस - वेस्सादओ वि तो तित्थमावन्नं ॥ विशेषावश्यकभाष्य १०३१ सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं तीर्थमिन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदयातीर्थ सर्वत्रार्जवमेव च ॥ दानं तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमुच्यते । ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं तीर्थं च प्रियवादिता ॥ तीर्थानामपि तत्तीर्थं विशुद्धिमनसः परा । Jain Education International शब्दकल्पद्र ुम - 'तीर्थ', पृ० ६२६ भावे तिथं संघ सुविहियं तारओ तर्हि साहू | नाणाइतियं तरणं तरियव्वं भवसमुद्दो यं ॥ विशेषावश्यकभाष्य १०३२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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