Book Title: Jain Siddhanta
Author(s): Atmaram Upadhyaya
Publisher: Jain Sabha Lahor Punjab

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Page 12
________________ जि-ऐसे धातु रखा है। फिर उणादि सूत्रसे जिन शब्द इस प्रकारसे वना, जैसे कि इषिञ्जिदीडष्यविभ्योनक् । नणादि प्रकरण पाद ३ सू०२॥ ___ अथ उज्ज्वलदत्त टीका-इण्गतौ । पिवंधने । जि जये। दीङ् क्षये । उप दाहे । अवर क्षणे । एभ्यो नक् स्यात् ॥ इनोराज्ञिमभौसूर्ये ॥ इनः सूर्येनृपेपत्यौ । नान्ते ॥२॥ इति विश्वः ।। सह इनेन वर्तत इति सेना || सेनयाभियात्यभिपेणयति ।। सिनः काणः ॥ जिनो बुद्धः। जिनः स्यादतिद्धेऽपि बुद्धेचाहति जित्वरे विश्वेनान्त ॥ १॥ दीनोदुर्गतः ॥ उष्णमीपत्तप्तम् ॥ ज्वरत्वरेत्यूठ । उनमसम्पूर्णम् ॥ सर्वस्वे तु जनयत्तेरूनमिति साधितम् ।। इतिहत्ति ॥ इस सूत्रसे 'जि' धातुको नक् प्रत्यय हो गया तब जिन शब्द सिद्ध हुआ, अपितु हैमचन्द्राचार्य नाममाला वृत्तिमें लिखते हैं किजयत्यनिनवतिरागषादिशत्रून् इति जिनः।। इसमें यह वर्णन है कि जो विशेष करके रागद्वेषादि अं. तरंग शत्रुओंको जीतता है वही जिन है, अर्थात् जिसने राग

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