Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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प्राक्कथन
'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' का द्वितीय भाग-अंगबाह्य आगम पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करते हुए अत्यधिक आह्लाद का अनुभव हो रहा है । इस भाग को प्रकाशित करते हुए विशेष प्रसन्नता इसलिए है कि इसका प्रकाशन भी प्रथम भाग के साथ ही हो रहा है। प्रथम भाग में अंग आगमों का सांगोपांग परिचय दिया गया है जबकि प्रस्तुत भाग में अंगबाह्य आगमों का सर्वांगीण परिचय प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार आरम्भ के इन दो भागों से समस्त मूल आगमों का परिचय प्राप्त हो सकेगा। शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाले तृतीय भाग में आगमों के व्याख्यात्मक साहित्य का सर्वांगपूर्ण परिचय रहेगा।
प्रस्तुत भाग का उपांग एवं मूलसूत्र विभाग यशस्वी विद्वान् डा० जगदीशचन्द्र जैन का लिखा हुआ है तथा शेष अंश मैंने लिखा है।
अंगबाह्य आगम पाँच वर्गों में विभक्त हैं : १. उपांग, २. मूलसूत्र, ३. छेदसूत्र, ४. चूलिकासूत्र, ५. प्रकीर्णक। अंग आगमों की रचना श्रमण भगवान् महावीर के गणधरों अर्थात् प्रधान शिष्यों ने की है जबकि अंगबाह्य आगमों का निर्माण भिन्न-भिन्न समय में अन्य गीतार्थ स्थविरों ने किया है। दिगम्बर परम्परा में भी श्रुत का अर्थाधिकार दो प्रकार का बताया गया है अर्थात् आगमों के दो भेद किये गये हैं : अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंगप्रविष्ट में आचारांगादि बारह ग्रन्थों का समावेश किया गया है। अंगबाह्य में निम्नोक्त चौदह ग्रन्थ समाविष्ट हैं : १. सामायिक, २. चतुर्विंशतिस्तव, ३. वन्दना, ४. प्रतिक्रमण, ५. वैनयिक, ६. कृतिकर्म, ७. दशवकालिक, ८. उत्तराध्ययन, ९. कल्पव्यवहार, १०. कल्पाकल्पिक, ११. महाकल्पिक, १२. पुण्डरीक, १३. महापुण्डरीक, १४. निशीथिका। दिगम्बरों की मान्यता है कि उपर्युक्त अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य दोनों प्रकार के आगम विच्छिन्न हो गये हैं। श्वेताम्बर केवल बारहवें अंग दृष्टिवाद का ही विच्छेद मानते हैं, आचारांगादि ग्यारह अंगों का नहीं। इसी प्रकार औपपातिकादि अनेक अंगबाह्य ग्रन्थ भी अविच्छिन्न हैं।
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