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( ३६ ) बीजों में उत्तर-क्षण-भावी कार्य के कारणों के सम्बन्ध और असम्बन्ध ऐसे विरोधी धर्मों के समावेश से भेद की सिद्धि अनिवार्य है। यह भेद पूर्वक्षणस्थ बीज का उत्तरक्षण में नाश होने ही पर सम्भव है। इस प्रकार बीज आदि वस्तुओं की क्षणिकता का निश्चय निष्कण्टक रूप से होता है । ____ इस बौद्ध आलोचन का जैनसम्मत उत्तर यह है कि स्याद्वाद प्रमाण की दृष्टि में उक्त धर्मों में एकान्त विरोध नहीं है। अतः उनके आश्रयों में एकान्त भेद भी नहीं हो सकता। फलतः पहले और दूसरे क्षण के बीज आदि पदार्थ दृष्टिभेद से परस्पर में भिन्न और अभिन्न होने के कारण क्षणिक भी हैं और स्थिर भी हैं। अर्थात् मूल-द्रव्य के रूप में स्थिर हैं और आगमापायी पर्यायों के रूप में क्षणिक हैं।
बौद्ध के उक्त आलोचन का न्यायसम्मत समाधान इस प्रकार है। बीज में जल आदि सहकारियों के सम्बन्ध और असम्बन्ध में जो विरोध बताया गया है, वह असङ्गत है। क्योंकि उसके जितने भी प्रकार सम्भाव्य हैं वे सब सदोष हैं । जैसे
सम्बन्ध और असम्बन्ध के विरोध का अर्थ यदि यह हो कि बीज में जल आदि का जो संयोग है वह बीज रूप ही है, उससे भिन्न नहीं। क्योंकि संयुक्तप्रतीति की उपपत्ति निरन्तरोत्पाद-व्यवधानहीन उत्पत्ति के द्वारा हो जाती है। अर्थात् संयुक्तता की प्रतीति उन्हीं दो पदाथों में होती है जो एक ही देश-काल में उत्पन्न होते हैं, अतः एक देश-काल में उत्पत्ति रूप निरन्तरोत्पाद की ही संज्ञा संयोग है।
इसी प्रकार उस बीज में जल आदि के सम्बन्धों का जो अभाव कुसूलस्थिति-दशा में है, वह भी बीजरूप ही है। क्यों कि अभाव की अधिकरणभिन्नता अप्रामाणिक है। इस प्रकार जल आदि के संबन्ध और असम्बन्ध इन दोनों के एक बीज रूप हो जाने से उन दोनों में भी एकरूपता आ जाती है । परन्तु यह ठीक नहीं है, क्यों कि किसी वस्तु का अपने अभाव के साथ एकीभाव विरुद्ध है। __ सम्बन्ध और असम्बन्ध के विरोध का अर्थ यदि यही हो तो यह सर्वथा असंगत है। क्यों कि न्याय-मत में बीज में जल आदि का जो संयोग और उसका अभाव है, वह बीज से भिन्न है। यदि वह बीज से भिन्न न होगा तो बीज में जल आदि के संयोग और अभाव की सर्वसंमत आश्रयता की प्रतीति का लोप हो जायगा, क्योंकि आश्रयायिभाव भिन्न वस्तुओं में ही नियत है।
जिस बीज में जल आदि सहकारियों का सन्निधान होता है उसमें कर्भ भी उनका असन्निधान नहीं हो सकता। यह तो तब सम्भव होता जब उनका
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