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ही एक प्रामाणिक वस्तु है, उससे भिन्न दिखनेवाली सारी वस्तुयें अप्रामाणिक हैं, अत: आत्मा की नित्यता का सिद्धान्त सर्वथा असंगत है ।
विज्ञानवादी के इस मत का खण्डन करने के उद्देश्य से यशोविजय जी उसके अभिप्राय का विश्लेषण प्रस्तुत श्लोक के पूर्वार्ध में इस प्रकार करते हैं, " ज्ञान से भिन्न वस्तु अप्रामाणिक है" इस मत का उद्घोष करने वाले विज्ञानवादी के तात्पर्य का वर्णन तीन रूपों में किया जा सकता है । जैसे :
( १ ) ज्ञान और ज्ञेय में अभेद है ।
( २ ) ज्ञान और ज्ञेय में एकजातीयता है— ज्ञेय ज्ञान से विजातीय नहीं है । ( ३ ) ज्ञान सत्य है किन्तु ज्ञेय अर्थात् उसका प्रकाश्य विषय असत्य है । श्लोक के उत्तरार्ध में उक्त तीनों पक्षों के समर्थन की अशक्यता का संकेत किया गया है जो इस प्रकार है :
ऊपर निर्दिष्ट किए हुए तीनों पक्षों में से किसी भी पक्ष को साधनीय रूप से ग्रहण कर उसके साधनार्थ विज्ञानवादी यदि किसी हेतु का प्रयोग करना चाहता है तो उस हेतु के दोषग्रस्त होने से उसे अपने पक्ष के समर्थन की आशा का परित्याग करना पड़ता है । जैसे प्रथम पक्ष के समर्थन में बहुधा तीन हेतुवों का प्रयोग होता है ।
( १ ) सहोपलम्भनियम
( २ ) ग्राह्यत्व और -
( ३ ) प्रकाशमानत्व |
( १ ) सहोपलम्भनियम का अर्थ है - नियम से साथ ही उपलब्ध होना । इस हेतु के अनुसार विज्ञानवादी का कथन यह है कि - ज्ञान को अपने विषय अभिन्न होना चाहिये, क्योंकि वह अपने विषय के साथ ही उपलब्ध होता है, यदि वह अपने विषय से भिन्न होता तो उसे छोड़कर भी उसको वैसे ही उपलब्ध होना चाहिए था जैसे बाह्यार्थवादी के मत में पट से भिन्न घट पट को छोड़कर भी उपलब्ध होता है, परन्तु ज्ञान अपने विषय को त्याग कर कभी भी उपलब्ध नहीं होता । अतः परस्पर भिन्न दो वस्तुओं की अपेक्षा उक्त प्रकार से विलक्षण होने के कारण ज्ञान और ज्ञेय में अभेद ही मानना उचित है ।
( २ ) ग्राह्यत्व का अर्थ है - ज्ञान का विषय होना, इस हेतु से ज्ञेय और ज्ञान में अभेद के साधन का प्रकार यह है, पदार्थ अपने ज्ञान से अभिन्न होता है क्योंकि वह सब ज्ञानों का विषय न होकर नियत ज्ञान का ही विषय होता है, यदि पदार्थ अपने से भिन्न ज्ञान का विषय होता तो उसके भेद के उसका
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