Book Title: Jain Nyaya Khanda Khadyam
Author(s): Yashovijay, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 179
________________ ( १६१ ) इस सन्दर्भ में ग्रन्थकार का कथन यह है कि ऊपर बताये गये समस्त दोष देखने में यद्यपि सर्प के समान बड़े भयानक लगते हैं तथापि भगवान महावीर के शासन में रहने वाले लोगों को उन दोष-पनमों से कोई डर नहीं है क्योंकि वे स्थाद्वाद के गारुडीय मन्त्र से सुरक्षित हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे affairs गारुडीय मन्त्र को जानने वाले मनुष्यों को बड़े-बड़े विषैले सर्प कोई हानि नहीं पहुंचा पाते उसी प्रकार स्याद्वाद की रीति से समस्त विरोधी का समन्वय करने में कुशल जैन मनीषियों को भी उक्त आपत्तियाँ कोई हानि नहीं पहुंचा सकतीं क्योंकि जैनमत में आत्मा में मूर्तत्व, सावययत्व, कार्यत्व, खण्ड, प्ररोह और भिन्नात्मता अपेक्षाभेद से कथंचित् स्वीकार्य हैं । स्युर्वैभवे जननमृत्युशतानि जन्म म्येकत्र पाटितशतावयवप्रसङ्गात् । चिसान्तरोपगमती बहु कार्य हेतु भावोपलोपजनितं च भयं परेषाम् ॥ ७३ ॥ आत्मा को अव्यापक मानने पर जो दोष शङ्कास्पद थे उनका निराकरण कर आत्मा को व्यापक मानने पर प्रसक्त होने वाले अप्रतीकार्य दोषों का प्रदर्शन इस श्लोक में किया गया है । ऐसे दोषों में प्रधान दोष यह है कि यदि आत्मा व्यापक होगा तो एक ही जन्म में उसके सैकड़ों जन्म और मरण मानने होंगे, जैसे जब किसी छिपकली का शरीर कट जाने पर उस के कई खण्ड हो जाते हैं तब उन खण्डों में कुछ देर तक कंपकंपी होती है, यह कपकंपी दुःखानुभव के कारण ही होती है, दुःखानुभव उन विभिन्न खण्डों में तभी हो सकता है जब उन में भिन्न-भिन्न मन का अनुप्रवेश माना जाय, और आत्मा के व्यापकत्व - मत में भोगायतन में मन का प्रवेश ही आत्मा का जन्म और उसमें से मन का निष्क्रमण ही मरण कहलाता है । इसलिये किसी छिपकली का शरीर कटने पर उसके जितने खण्ड होंगे उन खण्डों में उतने मन का प्रवेश होने पर उस छिपकली के उतने ही जन्म और उन खण्डों से मन का निष्क्रमण होने पर उतने ही उसके मरण मानने होंगे । उक्त रीति से एक जन्म में एक जीव के कई जन्म और कई मरण तथा कई भोगायतनों में उस जन्म के कई भोग मानने का परिणाम यह होगा कि आत्मा के व्यापकत्वमत में माने गये कई कार्यकारणभावों के लोप का भय उपस्थित हो जायगा । जैसे किसी भी सामान्य जीव को एक जन्म में किसी एक ही शरीर में किसी एक ही मन से उस जन्म के सभी भोग सम्पन्न होते हैं, यह वस्तुस्थिति है, इस वस्तुस्थिति को व्यवस्थित ११ न्या० ख० Aho ! Shrutgyanam

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