________________
( १७६)
इस श्लोक में ज्ञान की अपेक्षा चारित्र क्रिया को अभ्यर्हित बताया गया है । श्लोकार्थ इस प्रकार है ।
जिस प्रकार राजा अपने प्रियपुत्र को चांदी, सोने और रत्न की खाने न देकर लोह की ही खान देता है और शेष तीन पुत्रों को चांदी आदि की खाने देता है, उसी प्रकार गुरु अपने योग्य मुनि शिष्य को गणित, धर्म-कथा और द्रव्य का उपदेश न देकर प्रधान रूप से चारित्र का ही उपदेश देता है, और गणित आदि का उपदेश अन्य शिष्यों को देता है और यदि उसे भी देता है तो गौणरूप से ही देता है । जिस प्रकार उक्त वितरणव्यवस्था में राजा का यह आशय होता है कि चांदी आदि के खानों की रक्षा के लिये अपेक्षित शस्त्रों के निर्माणार्थ लोहा प्राप्त करने के लिये चाँदी आदि के खानों के स्वामियों को लोह की खान के स्वामी को चांदी आदि देना होगा और इस प्रकार लोह की खान वाले पुत्र को चांदी, सोने और रत्न की प्राप्ति निरन्तर होती रहेगी । ठीक उसी प्रकार उक्त प्रकार से उपदेश देने वाले गुरु का भी यह अभिप्राय होता है कि गणित, धर्म-कथा और क्रय का उपदेश प्राप्त किये हुये शिष्य दीक्षा का समुचित काल बताकर, वैराग्यकारी कथाओं का प्रवचन कर और तत्त्वविवेचन से सम्यक्त्व का शोधन कर चारित्र का उपदेश धारण करने करते रहेंगे, और वह अपने चारित्र के बल से बढ़ता जायगा । गुरु के इस विवेकपूर्ण कार्यं से ज्ञान का सामान्य उपयोग है और चारित्र का अत्यधिक उपयोग है अतः चारित्र क्रिया ज्ञान से निर्विवाद रूप से प्रधान है ।
वाले शिष्य का कार्य सम्पादन अपनी साधना में सतत आगे यह स्पष्ट है कि साधना में
प्रज्ञापनीयशमिनो गुरुपारतन्त्र्यं
ज्ञानस्वभावकलनस्य तथोपपत्तेः ।
ध्यान्ध्यं परं चरणचारिमशालिनो हि
शुद्धिः समग्रनय सङ्कलनावदाता ॥ ९४ ॥
जो शमसम्पन्न साधु प्रज्ञापनीय - उपदेशार्ह होता है, अर्थात् असत् आग्रह का परित्याग करने को उस रहता है वह गुरु की अधीनता स्वीकार करता है | गुरु के अधीन होने से उसके ज्ञान का परिष्कार होता है, किन्तु जो साधु प्रज्ञापनार्हं नहीं होता वह गुरु की अधीनता नहीं स्वीकार करता । फलतः उत्कृष्ट चारित्र से सम्पन्न होने पर भी उसकी बुद्धि अन्धी ही रह जाती है, क्योंकि बुद्धिको अवदाता-शुद्धि समग्रनयों के सङ्कलन - समन्वित प्रयोग से ही अनुग्रहपूर्ण उपदेश के विना
सद्गुरु के
सम्पन्न होती है और वह संकलन सम्भव नहीं होता ।
Aho ! Shrutgyanam