Book Title: Jain Nyaya Khanda Khadyam
Author(s): Yashovijay, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 191
________________ . ( १७३) माकर्षणादिनियताऽस्ति जपक्रियैव परयुः प्रवर्शयति सा न मुखं परस्य । वैकल्पिकी भवतु कारणताच बाधे .. र द्वारित्वमप्युभयतो मुखमेव विद्मः ॥ ८९ ॥ इस श्लोक में एकासीवें श्लोक के इस कथन का निरास किया गया है कि क्रिया के न रहने पर भी केवल मन्त्रज्ञान से आकर्षण आदि की सिद्धि होने से फलप्राप्ति के प्रति क्रिया की अपेक्षा ज्ञान का प्राधान्य है। श्लोकार्थ इस प्रकार है। आकर्षण आदि के पूर्व केवल आकर्षणादिकारी मन्त्र के ज्ञान का ही अस्तित्व नियत नहीं है, अपितु उस मन्त्र के जप की क्रिया का भी अस्तित्व नियत है। यह बात सर्वविदित है कि आकर्षणकारी मन्त्र के ज्ञानमात्र से आकर्षण नहीं सम्पन्न होता किन्तु उसका जप करने से सम्पन्न होता है, अतः मन्त्रजपात्मक क्रिया से आकर्षण की सिद्धि होने के कारण आकर्षण को मन्त्रज्ञानमात्र का कार्य बताकर क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता नहीं प्रतिष्ठित की जा सकती। इस सन्दर्भ में एकासीवें श्लोक में जो यह कहा गया कि जहाँ क्रिया लज्जित सी अपना मुख छिपाये रहती है वहाँ भी केवल मन्त्रज्ञान से ही आकर्षण आदि कार्य होते हैं, वह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त स्थल में आकर्षण आदि के पूर्व मन्त्रजपात्मक क्रिया अपने स्वामी स्याद्वादी के सम्मुख अपना मुख नहीं छिपाती उसे तो अपने मुख का प्रदर्शन करती ही है। किन्तु वह मुख' छिपाती है उससे जो स्याद्वादविरोधी होने से उसका मुख देखने का अधिकारी नहीं है। कहने का आशय यह है कि जो लोग क्रिया की उपेक्षा कर केवल ज्ञान को ही फल का साधक मानते हैं ऐसे एकान्तवादी को ही आकर्षणादि के पूर्व मन्त्रजपात्मक क्रिया की उपस्थिति नहीं विदित होती । पर जो लोग इस एकान्तवाद में निष्ठावान् नहीं हैं ऐसे विवेकशील स्याद्वादी को आकर्षणादि के पूर्व मन्त्रजपात्मक किया की उपस्थिति स्पष्ट अवभासित होती है। अतः आकर्षण आदि को क्रियानिरपेक्ष मन्त्रज्ञानमात्र का कार्य बताकर क्रिया की अपेक्षा ज्ञान को प्रधानता प्रदान करना उचित नहीं हो सकता। बयासीवें श्लोक में प्रसन्नचन्द्र नामक पुरुष में क्रिया में मोक्षप्राप्ति का अन्वय व्यभिचार और भरत नामक पुरुष में क्रिया में मोक्ष प्राप्ति का व्यतिरेक व्यभिचार बताकर जो क्रिया में मोक्षकारणता का निषेध किया गया, वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त व्यभिचार से क्रिया में मोक्ष की नियत कारणता का ही प्रतिषेध हो सकता है न कि वैकल्पिक कारणता का भी प्रतिषेध हो Aho! Shrutgyanam

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