Book Title: Jain Nyaya Khanda Khadyam
Author(s): Yashovijay, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 160
________________ ( १४२ ) में कोई बाधा नहीं हैं, ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि जब घटत्व अतद्व्यावृत्ति से भिन्न नहीं है तब घटत्वरूप से अतद्व्यावृत्त होने का अर्थ होगा अतद्व्यावृत्तिरूप से अतद्व्यावृत्तिमान् होना, जो कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता । इस लिये यह स्पष्ट है कि पूर्व दृष्ट वस्तु और वर्तमान में स्पृश्यमान वस्तु में व्यक्तिगत ऐक्य माने विना किसी भी दृष्टि से उक्त अनुभव की उपपत्ति नहीं की जा सकती । उक्त अनुभवकी उपपत्ति के लिये जिस प्रकार भिन्न काल में देखी और स्पर्श की जानेवाली वस्तु में व्यक्तिगत ऐक्य मानना आवश्यक है उसी प्रकार उस वस्तु को पूर्वकाल में देखने वाले तथा कालान्तर में उसीको स्पर्श करने वाले मनुष्य में भी व्यक्तिगत ऐक्य मानना आवश्यक है, क्योंकि यदि दर्शन और स्पर्शन भिन्न-भिन्न व्यक्ति को होगें तो दर्शन करने वाले को स्पर्शन का और स्पर्शन करने वाले को दर्शन का पता न होनेसे 'जिसे पहले मैंने देखा था उसे इस समय मैं स्पर्श कर रहा हूँ' इस अनुभवकी उपपत्ति सम्भव न होगी । देखने वाले और स्पर्श करने वाले मनुष्य में व्यक्तिगत भेद होने पर भी सन्तान के ऐक्य से उसकी उपपत्तिको सम्भाव्यता भी नहीं हो सकती, क्योंकि भावात्मक अनुगत स्थायी धर्म के अभाव में उक्तरीति से एक सन्तान की अन्तर्गतता का समर्थन नहीं किया जासकता । उक्त सारी बातों के निष्कर्षस्वरूप गुणी को गुण से भिन्न एवं स्थायी रूप में स्वीकार करने को विवश होने के कारण न्यायसम्मत आत्मा की प्रामाणिकता में सन्देह नहीं किया जा सकता । अनात्मवादी दार्शनिकों की ओर से न्याय सम्मत आत्मा के ऊपर एक और बड़ा कठोर प्रहार किया जाता है, वह यह कि न्यायदर्शन ने जिस आत्मा को मान्यता दे रखी है, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्यों कि वह अनुपलब्धि से बाधित है, उनका आशय यह है कि जो पदार्थ सत् होता है वह अवश्य उपलब्ध होता है । अतः जिसकी उपलब्धि नहीं है वह असत् है । न्यायशास्त्र में वर्णित नित्य विभु, द्रव्य स्वरूप आत्मा की उपलब्धि नहीं होती, अत: वह असत् है । अनुपलब्धि असत्ता की बहुत बड़ी कसौटी है, यदि उसकी उपेक्षा कर दी जायगी तो किसी भी अनुपलम्यमान पदार्थ को अस्वीकार न किया जा सकेगा, फलतः कूर्मरोम, शशशृङ्ग, कच्छपीक्षीर, आकाशकुसुम, वन्ध्यापुत्र आदि अनन्त अनुपलभ्यमान पदार्थों का अस्तित्व गले पतित होगा । इस प्रहार के प्रतीकारमें नैयायिकों का कथन यह है कि अनुपलब्धि से आत्मा के असत्त्व का साधन नहीं किया जा सकता, क्योंकि अनुपलब्धि का Aho ! Shrutgyanam

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