Book Title: Jain Nyaya Khanda Khadyam
Author(s): Yashovijay, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhambha Sanskrit Series Office

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Page 118
________________ ( १०० ) घटाभाव की प्रतियोगिता का नियन्ता माना जाता है । फलत: घटत्व से नियमित होने वाली घटाभाव की प्रतियोगिता घटत्व के सभी आश्रयों में रहती है और घटत्व से शुन्य आश्रयों में नहीं रहती । इस प्रकार प्रकृत में प्रतियोगिता से न्यून तथा अधिक स्थान में न रहने वाले उसके नियामक धर्म का नाम अवच्छेदक है । व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव - जिस अभाव की प्रतियोगिता अपने अवच्छेक धर्म के साथ नहीं रहती अर्थात् जिस अभाव की प्रतियोगिता अपने आश्रय में न रहनेवाले धर्म से अवच्छिन्न होती है उस अभाव को व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभाव कहा जाता है । जैसे "घटत्वेन पटाभाव" व्यधिकरण-धर्मावच्छिन्नाभाव है क्योंकि उसकी प्रतियोगिता अपने आश्रय पट में न रहने वाले घटत्वधर्म से अवच्छिन्न है । इस अभाव की कल्पना सर्वप्रथम सोन्दड़नामक नैयायिक ने की थी और प्रतियोगितावच्छेदक से विशिष्ट प्रतियोगी के साथ अभाव के विरोध का नियम मानकर इस अभाव की केवलान्वयिता - सार्वत्रिकता स्थापित की थी । अर्थात् यह बताया था कि घटत्वेन पटाभाव का प्रतियोगी पट घटत्वरूप प्रतियोगितावच्छेद से विशिष्ट होकर कहीं नहीं रहता अतः कहीं भी अपने विरोधी के न रहने के कारण वह अभाव सर्वत्र रहता है । इस अभाव के विषय में विशेष विचार श्रीगङ्गेशोपाध्याय रचित "तत्त्वचिन्तामणि" के अनुमानखण्ड में व्याप्तिवाद के अन्तर्गत "व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नाभावप्रकरण" और उसकी “माथुरी” तथा “ दीधिति" टीकावों में और उस प्रकरण की " दीधिति" की " जागदीशी" एवं "गादाधरी" टीकाओं में किया गया है । इस अभाव पर विचार करते हुए जैन विद्वानों ने इसी के समान व्यधिकरणधर्मावच्छिन्नानुयोगिताक अभाव भी माना है । जिसका वर्णन “जलत्वेन पृथिव्यां गन्धो नास्ति - जलत्वावच्छेदेन पृथिवी में गन्ध का अभाव है" "पृथिवीत्वेन जले स्नेहो नास्ति - पृथिवीत्वावच्छेदेन जल में स्नेह का अभाव है " इन रूपों में किया गया है । विश्वं ह्यलीकमनुपाख्य मलं न बौद्ध ? 'सोदु' विचारमिति जल्पसि यद्विचारात् । कः कीदृगेष इति पृष्ट इह त्वदीयै द्वक्ति तद्बठर भौतविचारकश्पम् ॥ ४६ ॥ बौद्ध जगत् को अलीक - असत्, अनुपाख्य — अनिर्वचनीय और विचारासह-विचार करने पर उपपन्न न होने वाला बताते हैं । किन्तु जैन जब Aho ! Shrutgyanam

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