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स्याद्वादसिद्धान्त में अन्य सभी मतों की बातें सम्मिलित रहती हैं, यह सिद्धान्त किसी अन्य मत का खण्डन नहीं करता किन्तु विभिन्न मतों में समन्वय और सामञ्जस्य स्थापित करता है । अतएव यह सब मतों का उपजीव्य - संरक्षक हैं : अन्य किसी सिद्धान्त को यह गौरव नहीं प्राप्त हो सकता क्योंकि अन्य सब सिद्धान्त एक दूसरे के प्रति घृणा के भाव से भरे होते हैं, वे अपनी बात को तो बड़ा आदर देते तथा बहुत युक्तिसंगत बताते हैं पर दूसरे की बात को बड़े अनादर से देखते और उसका बड़े आवेश तथा आडम्बर के साथ खण्डन करते हैं । इस प्रकार जो नय एक दूसरे के विरोधी हैं उनमें से
की सहायता
नय को
वाले पुरुष को अन्य नय सकता, क्योंकि निश्चित किये मनुष्य को
दूसरे नये गये पूर्व
सिद्धान्त से
किसी एक पर आस्था रखने प्रकार का बल नहीं प्राप्त हो अपने निजी नय के आधार पर जाना पड़ता है | अतः बुद्धिमान् लिये दूसरे नय का छलरूप से भी प्रयोग करना ठीक नहीं है किन्तु नय पर निर्भर रहना उचित है । इसलिये बौद्धमत के खण्डनार्थं नैयायिक को वेदान्त की नीति का अवलम्बन करना सर्वथा अनुचित है ।
च्युत हो
किसी मत का खण्डन
करने के
अपने ही
कः कं समाश्रयतु कुत्र नयोऽन्यतर्कात् प्रामाण्यसंशय दशामनुभूय भूयः । ताटस्थ्यमेव हि नयस्य निजं स्वरूपं
से किसी
अपनाने से
स्यार्थेष्वयोगविरहप्रतिपत्तिमात्रात् ॥ ४० ॥
प्रत्येक नय अन्य नय के तर्कानुसार अप्रामाणिक है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि कौन सा नय प्रमाण है और कौन सा अप्रमाण ? इसलिये किसी एक नय को सदोष सिद्ध करने के लिये कोई नय किसी नयान्तर का सहयोग नहीं प्राप्त कर सकता ।
इस पर यह प्रश्न उठ सकता है कि अन्य नय के प्रतिपाद्य विषय को असत् बताते हुये अपने विषय को सत् सिद्ध करना ही नयों का कर्तव्य होता है, इसलिये जो नय दूसरे नय के विषय की असत्यता स्थापित करने में समर्थ न होगा वह नय कहलाने का ही अधिकारी कैसे हो सकेगा ?
इसका उत्तर बड़ी सरलता से इस प्रकार दिया जा सकता है कि अन्य नय के विषय को असत्यता का प्रतिपादन करना नय के कर्तव्यों में सम्मिलित नहीं है, उसका कर्तव्य तो अपने विषय की असत्यता के निषेध का प्रतिपादन करना तथा अन्य नय के विषयों की सत्यता वा असत्यता के प्रदर्शन में तटस्थ रहना ही है । तात्पर्य यह है कि नय को वास्तविकता अपने विषय के समर्थन में है
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