________________
स्फूरित होने वाले प्रतीति के जलाकार में ही होती है। क्यों कि प्रतीति सदा अपने प्रकाश्य विषय में ही प्रत्येता को प्रवृत्त करती है, और विशिष्ट प्रतीति जिसे साकार प्रतीति या विकल्प प्रत्यय कहा जाता है वह वास्तविक व्यक्ति को विषय नहीं करती। अतः प्रतीति अपने विषयभूत अपने आकार ही में प्रवृत्त करती है। प्रतीति के आकार में प्रवृत्त हुआ मनुष्य उस आकार का सम्पादन करने वाले बाह्य पदार्थ को उसी प्रकार प्राप्त करता है, जैसे मणि को न देखने पर भी मणि की प्रभा को देख कर उस प्रभा के अनुसन्धान में प्रवृत्त हुआ मनुष्य उसके केन्द्र भूत मणि को प्राप्त करता है। इस प्रकार जिस कार्य के सम्पादनार्थ जलत्व की कल्पना की जाती है उसका सम्पादन ज्ञान के आकार से हो जाने के कारण जलत्व को ज्ञानाकार से भिन्न मानने की आवश्यकता नहीं है। अतः साकारज्ञानवादी के वचन में यह कहा जा सकता है कि जलत्वादि धर्म जलाद्याकार ज्ञान के आकार रूप हैं, और ज्ञान के क्षणिक होने से उनका आकार भी क्षणिक है तथा ज्ञानाकार के क्षणिक होने से तद्रूप जलत्वादि भी क्षणिक हैं। ___ साकारज्ञानवादी का यह कथन आदर के योग्य नहीं है, क्यों कि प्रवृत्ति उसी वस्तु में होती है जिसमें इष्ट अर्थ की साधनता का ज्ञान होता है, प्यासे मनुष्य का इष्ट अर्थ है प्यास की शान्ति, उसकी साधनता का ज्ञान प्रतीति के आकार में नहीं होता किन्तु पानाह जल में होता है । अतः जल के ज्ञान से उसके जलाकार में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। ज्ञानाकारगोचर प्रवृत्ति से अर्थ की प्राप्ति की संगति बताने के लिये जो मणिप्रापक प्रवृत्ति का उदाहरण दिया गया है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जहां मणि नहीं दीखती किन्तु उसकी प्रभा ही दीखती है, वहां भी प्रभा से मणि का अनुमान होकर मणि में ही प्रवृत्ति होती है न कि प्रभा में, अत: वहां मणिगोचर प्रवृत्त ही मणि का प्रापक होती है न कि प्रभागोचर प्रवृत्ति मणि का प्रापक होती है। ____ ज्ञानाकार में प्रवृत्त मनुष्य वाह्य अर्थ को प्राप्त करता है यह कथन भी उचित नहीं है, क्यों कि ज्ञानसाकारतावाद और बाह्यार्थवाद दोनों की सहमान्यता नहीं हो सकती। वाह्य अर्थों के अस्वीकार पक्ष में भी ज्ञानों में विलक्षणता के उपपादनार्थ ज्ञानाकार को कल्पना होती है किन्तु यदि वाद्य अर्थो का अस्तित्व माना जायगा तो उनका ज्ञान में स्फुरण अवश्य मानना होगा अन्यथा जिसका ज्ञान में स्फुरण न होगा उसकी सत्ता ही कैसे प्रमाणित होगी, क्यों कि ज्ञान ही वस्तु की सत्ताके व्यवस्थापक होते हैं और यदि बाह्य अर्थों का ज्ञान स्फुरण होगा तो बाह्य अर्थो की विलक्षणता से ही उनको ग्रहण करने
Aho! Shrutgyanam