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इस प्रकार यह सिद्ध हो जाने पर कि व्यक्ति और जाति में आश्रयाश्रितभाव अथवा विशेष्यविशेषणभाव के उपपादनार्थ उन दोनों में कोई सम्बन्ध आवश्यक है, यह विचार करना चाहिये कि उनका परस्पर में कौन सा सम्बन्ध हो सकता है ?
संयोग सम्बन्ध दो द्रव्यों ही के बीच होता है अतः व्यक्ति के साथ जाति का संयोग सम्बन्ध नहीं बन सकता।
व्यक्ति के साथ जाति का कालिक सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर घटत्व आदि जातियों का पट आदि पदार्थों के साथ कालिक सम्बन्ध होने के कारण घट आदि के समान पट आदि पदार्थों में भी घटत्व आदि जातियों की आश्रयता की आपत्ति होगी, और आत्मा आदि नित्य पदार्थों में जो काल या काल की उपाधिरूप नहीं हैं, कालिक सम्बन्ध न होने से जाति की आश्रयता न हो सकेगी। इन्हीं दोषों के कारण व्यक्ति के साथ जाति का दैशिकदिङमूलक स्वरूप, सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि विभिन्न दिशाओं में रहने वाले घट आदि पदार्थों में घटत्व आदि जातियों की आश्रयता उपपन्न करने के लिये उन जातियों को सार्वदेशिक मानना होगा, फिर घटत्व आदि जातियों का दैशिक सम्बन्ध पट आदि में भी होने के कारण पट आदि को भी घट आदि के समान ही घटत्व आदि जातियों का आश्रय बनना पड़ेगा। एवम् आत्मा आदि व्यापक पदार्थों के दिशा और उसकी उपाधि से भिन्न होने के नाते उनमें दैशिक सम्बन्ध न होने के कारण उनमें जाति की आश्रयता असंगत हो जायगी।
व्यक्ति के साथ जाति का स्वरूप सम्बन्ध भी यहीं माना जा सकता, क्योंकि व्यक्ति का स्वरूप जातिगामी नहीं है और जाति का स्वरूप व्यक्तिगामी नहीं है, और सम्बन्ध की उभयगामिता आवश्यक है, अन्यथा घटत्व का स्वरूप जैसे घटगामी न होने पर भी घट में घटत्व की आधारता का सम्पादक होता है वैसे पटगामी न होने पर भी उसे पट में घटत्व की आधारता का सम्पादक होना पड़ेगा। व्यक्ति-स्वरूप को सम्बन्ध मानने के पक्ष में एक जाति की अनेक व्यक्ति होने के नाते एक जाति के सम्बन्ध को मी अनेक मानना होगा, अर्थात् एक जाति की अनेक सम्बन्धता अनेक व्यक्तियों में माननी पड़ेगी।
समवाय भी उनके बीच का सम्बन्ध नहीं बन सकता क्योंकि सब जातियों का एक ही समवाय मानने पर सम्बन्धिसत्ता को सम्बन्धसत्ता का अनुचरी होने के कारण पट आदि में भी घटत्व आदि जातियों की आधारता अनिवार्य हो जायगी, और यदि जाति के भेद से समवाय को भिन्न माना जायगा तो अनन्त सम्वन्ध की कल्पना करनी पड़ेगी।
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