Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 37
________________ जैन कम सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन संचित कर्म की तुलना कर्म की मत्ता अवस्था से, प्रारब्ध कर्म की तुलना उदय कर्म से तथा क्रियमाण कर्म की तुलना बन्धमान कर्म से करते हैं।' वैदिक परम्परा में कर्म की उपशमन अवस्था को मान्यता का स्पष्ट निर्देश तो नहीं मिलता, फिर भी महाभारत में पाराशरगीता में एक निर्देश है जिसमें कहा गया है कि कभी-कभी मनुष्य का पूर्वकाल में किया गया पुण्य ( अपना फल देने की राह देखता हुआ) चुप बैठा रहता है। इस अवस्था की तुलना जैन विचारणा के उपशमन से को जा सकती है। ___ कर्म को इन विभिन्न अवस्थाओं का प्रश्न कर्मविपाक को नियतता से सम्बन्धित है । अतः इस प्रश्न पर भी थोड़ा विचार कर लेना आवश्यक है। १४. कर्म-विपाक की नियतता और अनियतता जैन दृष्टिकोण हमने ऊपर कर्मों की अवस्थाओं पर विचार करते हुए देखा कि कुछ कर्म ऐसे हैं जिनका विपाक नियत है और उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता, जो जैन विचारणा में निकाचित कर्म कहे जाते हैं। जिनका बन्ध जिस विपाक को लेकर होता है उसी विपाक के द्वारा वे क्षय (निर्जरित) होते हैं अन्य किसी प्रकार से नहीं, यही कर्म-विपाक की नियतता है। इसके अतिरिक्त कुछ कर्म ऐसे भी हैं, जिनका विपाक उसी रूप में अनिवार्य नहीं होता। उनके विपाक के स्वरूप, मात्रा, समयावधि एवं तीव्रता आदि में परिवर्तन किया जा सकता है, जिन्हें हम अनि काचित कर्म के रूप में जानते हैं। जैन विचारणा कर्म-विपाक की नियतता और अनियतता दोनों को ही स्वीकार करती है और बताती है कि कर्मों के पीछे रही हई कषायों की तीव्रता एवं अल्पता के आधार पर हो क्रमशः नियत-विपाको एवं अनियत-विपाकी कर्मों का बन्ध होता है। जिन कर्मों के सेम्पादन के पोछे तीव्र कषाय (वासनाएँ) होती हैं, उनका बन्ध भी अति प्रगाढ़ होता है और उसका विपाक भी नियत होता है। इसके विपरीत जिन कर्मों के सम्पादन के पीछे कषाय अल्प होती है उनका बन्ध शिथिल होता है और इसीलिए उनका विपाक भी अनियत होता है । जैन कर्म-सिद्धान्त की संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तता, उदोरणा एवं उपशमन को अवस्थाएँ कर्मों के अनियत विपाक की ओर संकेत करती हैं, लेकिन जैन विचारणा सभी कर्मों को अनियतविपाकी नहीं मानती । जिन कर्मों का बन्ध तीव्र कषाय भावों के फलस्वरूप होता है उन्हें वह नियतविपाकी कर्म मानती है । वैयक्तिक दृष्टि से सभी आत्माओं में कर्मविपाक में परिवर्तन करने की क्षमता नहीं होती। जब व्यक्ति एक आध्यात्मिक ऊँचाई पर पहुँच जाता है, तभी उसमें कर्म-विपाक को अनियत बनाने की शक्ति उत्पन्न होती है। फिर भी स्मरण १. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २६०. २. महाभारत, शान्ति पर्व, २६०।१७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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