Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 66
________________ कर्मबन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया शरीररूपी लौ में बदल देता है । इस प्रकार यह बन्धन की प्रक्रिया चलती रहती है । " आत्मा के रागभाव से कियाएँ होती हैं, क्रियाओं से कर्म परमाणुओं का आस्रव ( आकर्षण ) होता है और कर्मास्रव से कर्म-बन्ध होता है । यह बन्धन की प्रक्रिया कर्मों के स्वभाव ( प्रकृति ), मात्रा, काल, मर्यादा और तीव्रता इन चारों बातों का निश्चय कर सम्पन्न होती है । १. प्रकृति बन्ध - यह कर्म परमाणुओं की प्रकृति (स्वभाव) का निश्चय करता है, अर्थात् कर्म के द्वारा आत्मा की ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति आदि किस शक्ति का आवरण होगा, इस बात का निर्धारण कर्म की प्रकृति करती है । २. प्रदेश बन्ध-कर्म-परमाणु आत्मा के किस विशेष भाग का आवरण करेंगे, इसका निश्चय प्रदेश बन्ध करता है । यह मात्रात्मक होता है । स्थिति और अनुभाग से निरपेक्ष कर्म - दलिकों की संख्या की प्रधानता से कर्म-परमाणुओं का ग्रहण प्रदेश बन्ध कहलाता है । ५७ ३. स्थिति बन्ध- - कर्म-परमाणु कितने समय तक सत्ता में रहेंगे और कब अपना फल देना प्रारम्भ करेंगे, इस काल मर्यादा का निश्चय स्थितिबन्ध करता है । यह समय मर्यादा का सूचक है । ४. अनुभाग बन्ध - यह कर्मों के बन्ध एवं विपाक की तीव्रता और मन्दता का निश्चय करता है । यह तीव्रता या गहनता ( Intensity ) का सूचक है । ९ २. बन्धन का कारण - आस्रव जैन दृष्टिकोण – जैन दर्शन में बन्धन का कारण आस्रव है । आस्रव शब्द क्लेश या मल का बोधक है । क्लेश या मल ही कर्मवगंणा के पुद्गलों को आत्मा के सम्पर्क आने का कारण है । अतः जैन तत्त्वज्ञान में आस्रव का रूढ़ अर्थ यह भी हुआ कि कर्मवर्गणाओं का आत्मा में आना आस्रव है । अपने मूल अर्थ में आस्रव उन कारकों की व्याख्या करता है, जो कर्म वर्गणाओं को आत्मा की ओर लाते हैं और इस प्रकार आत्मा के बन्धन के कारण होते हैं । आस्रव के दो भेद हैं (१) भावास्रव और ( २ ) द्रव्यासव । आत्मा की विकारी मनोदशा भावास्रव है और कर्मवर्गणाओं के आत्मा में आने की प्रक्रिया द्रव्यास्रव है । इस प्रकार भावास्रव कारण है और द्रव्यास्रव कार्य या प्रक्रिया है । द्रव्यास्रव का कारण भावास्रव हैं, लेकिन यह भावात्मक परिवर्तन भी अकारण नहीं है, वरन् पूर्वबद्ध कर्म के कारण होता है । इस प्रकार पूर्व बन्धन के कारण भावास्रव और भावास्रव के कारण द्रव्यास्रव और द्रव्यास्रव से कर्म का बन्धन होता है । १. तत्त्वार्थसूत्र टीका, भाग १, पृ० ३४३ उद्धृत स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २३२. २. तत्त्वार्थसूत्र, ८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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