Book Title: Jain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया ६१ ३. हिंसा क्रिया - अमुक व्यक्ति ने मुझे अथवा मेरे प्रियजनों को वष्ट दिया है अथवा देगा, यह सोचकर उसकी हिंसा करना । ४. अकस्मात् क्रिया - शीघ्रतावश अथवा अनजाने में होनेवाला पाप कर्म ; जैसे घास काटते काटते जल्दी में अनाज के पौधे को कष्ट देना । ५. दृष्टि विपर्यास क्रिया - मतिभ्रम से होनेवाला पाप-कर्म; जैसे चौरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड देना, मारना आदि । जैसे दशरथ के द्वारा मृग के भ्रम में किया गया श्रवणकुमार का वध | ६. मृष : क्रिया- झूठ बोलना । ७. अदत्तादान क्रिया - चौर्य कर्म करना । ८. अध्यात्म क्रिया - बाह्य निमित्त के अभाव में होनेवाले मनोविकार अर्थात् बिना समुचित कारण के मन में होनेवाला क्रोध आदि दुर्भाव । ९. मान क्रिया- अपनी प्रशंसा या घमण्ड करना । १०. मित्र क्रिया - प्रियजनों, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू, पत्नी आदि को कठोर दण्ड देना । ११. माया क्रिया-कपट करना, ढोंग करना । १२. लोभ क्रिया - लोभ करना । १३. ईथकी क्रिया - अप्रमत्त, विवेकी एवं संयमी व्यक्ति की गमनागमन एवं आहार-विहार की क्रिया । वैसे मूलभूत आस्रव योग ( क्रिया ) है । लेकिन यह समग्र क्रिया व्यापार भी स्वतः प्रसूत नहीं है । उसके भी प्रेरक सूत्र हैं जिन्हें आस्रव द्वार या बन्ध हेतु कहा गया है । समवायांग, ऋषिभाषित एवं तत्त्वार्थसूत्र में इनकी संख्या ५ मानी गयी है (१) मिथ्यात्व (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय और ( ५ ) योग (क्रिया) । * समयसार में इनमें से ४ का उल्लेख मिलता है, उसमें प्रमाद का उल्लेख नहीं । २ उपर्युक्त पाँच प्रमुख आस्रव द्वार या बन्धहेतुओं को पुनः अनेक भेद- प्रभेदों में वर्गीकृत किया गया है। यहाँ केवल नामनिर्देश करना पर्याप्त है । पाँच आठव द्वारों या बन्धहेतुओं के अवान्तर भेद इस प्रकार हैं १. मिथ्यात्व - मिथ्यात्व अयथार्थ ( १ ) एकान्त, ( २ ) विपरीत, (३) विनय, २. अविरति - यह अमर्यादित एवं असंयमित जीवन प्रणाली है । इसके भी पाँच भेद हैं- (१) हिंसा, ( २ ) असत्य, ( ३ ) स्तेयवृत्ति, (४) मैथुन ( काम वासना) और ( ५ ) परिग्रह ( आसक्ति) 1 दृष्टिकोण है जो पाँच प्रकार का है(४) संशय और ( ५ ) अज्ञान । १. (अ) समवायांग, ५।४; ( ब ) इसियभासिय, ६ ५; (स) तत्त्वार्थ सूत्र, ८१. २. समयसार, १७१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110